कांथा कढ़ाई क्या है?
बंगाल की पारम्परिक कढ़ाई कला कांथा है। कांथा से आशय पैबन्द लगे वस्त्र से है। कांथा मुख्यतः बंगाल की महिलाओं द्वारा बनाया जाता है। यह हमेशा उपयोग न आने वाली पुरानी साड़ियों पर बनाया जाता है। इसमें साड़ियों को तहों के रूप में व्यवस्थित करके रनिंग टांकों का उपयोग किया जाता है।
इसमें कढ़ाई वस्त्र के मध्य से आरंभ की जाती है। इसमें लगाये जाने वाले सूत साड़ी में से ही निकाले जाते हैं। प्रायः बीच के भाग में कमल, हाथी, मछली, चन्द्रमा, सूरज, शंख आदि के नमूने काढ़े जाते हैं।
प्राचीन गाथाओं पर अवलम्बित चित्रों को भी महिलायें अत्यन्त कुशलता पूर्वक वस्त्र पर अंकित कर देती हैं। यह नमूना कल्पना के आधार पर बनाया जाता है।
शैलजा डी. नायक के अनुसार, "It is treasured art of every door where in the Bengali ladies irrespective of their castes, classes and socio-economic groups are expertised. The Embroidery not only depicts the stitches employed but it also express the outflow of their creative resourceful imaginar and patient crftman."
कांथा पटना, हुगली फरीदपुर, खुलना, पूर्वी तथा पश्चिम बंगाल में बनाये जाते हैं। कांथा का उपयोग चारपाई तथा चौकी पर बिछाने हेतु बिस्तर के लिए किया जाता है। कांथा कढाई में टीकों में साटिन, कच्चा टांका तथा लूप टांके का अधिक उपयोग किया जाता है।
स्टेम टांके से नमूने के छोटे रूप बनाये जाते हैं। कभी-कभी उल्टी बखिया का भी उपयोग किया जाता है। नमूने की बाहरी रेखा गहरे रंग से बनाई जाती है और भीतरी भाग हल्के रंग से सामान्यतः बनाया जाता है।
परम्परागत कांथा मोटे सफेद धागे से बनाया जाता है। पुरानी साड़ी से ये धागे निकालकर इसे रनिंग स्ट्रीच द्वारा गद्दी जैसा बनाया जाता है। कांथा में रंगीन धागों का प्रयोग नमूनों को बनाने के लिए किया जाता है। कांथा कला का मुख्य संबंध अल्पना से होता है। अल्पना सामान्यतः त्यौहारों पर बनाया जाता है। कांचा मुख्यतः सात प्रकार के होते हैं-
(1) लैप कांथा,
(2) ओर कांथा,
(3) दुर्जनी,
(4) सुजनी,
(5) आरसीलता,
(6) बेटन,
(7) रुमाल।