जीवों के अस्तित्व पर संकट के बारे में उल्लेख कीजिए

वन्य जीवों के अस्तित्व पर संकट (Threat to the Existence of Living Beings)


जीवों के अस्तित्व पर संकट औद्योगिक सभ्यता ने असंख्य जातियों के भविष्य को संकट में डाल दिया है। उससे उनके विलुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। उसका प्रमुख कारण है उनके आवासों का नष्ट होना, वन्य जीवों का अनाधिकृत शिकार, विदेशज जातियों का अनियोजित प्रवेश तथा मिट्टी पानी और वायु का प्रदूषण। प्रकृति में विभिन्न जातियों के जीवों को मारना एवं उनके स्थान पर अन्य नवीन जातियों का उद्भव एक सतत् प्रक्रिया है। बिना किसी विघ्न वाले पारिस्थितिक  तंत्रों में जातियों के विलोपन की दर प्रति दशक एक जाति है। 

विगत शताब्दी में पारिस्थितिकी तंत्र पर मानवीय प्रभाव में जीवों के विलोपन के दर को बढ़ाया है। वर्तमान में प्रतिवर्ष सौ से लेकर हजार तक विविध जीवों की जातियां एवं उपजातियां विलुप्त हो रही हैं। पारिस्थितिकीय दृष्टि से जीवन के लिए संघर्ष कर रही इन जातियों को निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया जा सकता है -

1. विलुप्त जातियां (Extinct Species)

वह जातियां जी अब लम्बे समय से न तो अपने स्थानीय निवास में और न कहीं और पायी जाती है। इसे विलुप्त जाति कहते हैं। अनेकों बीष-जातियां भूतल पर अतीत में विकसित थी जो अब सदैव के लिए लुप्त हो गई हैं। डायनासौर क्यूबन, लालतोता, मैमथ तस्मानियन भेड़िया, ब्लू बल, रयूकस किंग फिशर रोडरीग्यूज आदि इनमें प्रमुख हैं। 

उक्त जातियों में कुछ तो प्राकृतिक कारणों से विपरीत परिस्थितियों में अपनी उत्तरजीविता न बनाए रख पाने के कारण इस धरती से विलुप्त हो गई।, जब कि कुछ जातियां जैसे- डोड़ों पक्षी (मारो गस में पाए जाने वाले), लाल पाण्डा (चीन में पाए आने वाले, आदि मानवीय क्रूरता की भेंट चढ़ गई।

2. संकटग्रस्त जातियां (Theratened species)

विश्व में जीव जन्तुओं की कुछ ऐसी जातियां हैं जो पूर्णतः लुप्त नहीं हुई है, परन्तु लुप्त होने के कगार पर हैं। इनमें भारतीय चीता, अफ्रीकन हाथी, काला हिरण, साही हिरण, बारह सिंगा, गिद्ध, देशी मुर्गियां प्रमुख हैं। इसी प्रकार फसलों को अनेक प्रजातियां भी विलुप्त होने की कगार पर हैं। इनमें मुख्य रूप से कोदो साबां, देशी चावल, जै, फाक्स टेल अनेक सब्जियां और फल प्रमुख है। इनकी संख्या निरन्तर कम हो रही है। 

यदि इन्हें सुरक्षित और संरक्षित नहीं कियवा गया तो निकट भविष्य में ये पूर्णतः समाप्त हो जाएंगी। जैविक विविधता (2009) संबंधी चौथे अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) की लाल सूची (2008) के अनुसार भारत में वैश्विक रूप से संकटग्रस्त 413 जीव-जन्तुओं की प्रजातियां हैं, जो कि विश्व के कुल संकटग्रस्त प्राणियों की प्रजातियों का 4.9 प्रतिशत है।

3. सम्भावित संकट ग्रस्त जातियां (Endagered Species)

विश्व में अनेक जीव जातियां ऐसी हैं जिनके अस्तित्व पर भविष्य में संकट को संभावना है। इन जीव जन्तुओं की संख्या निरन्तर कम हो रही है। देशी गाय देशी भैंस, भेड़, बकरी, आदि की संख्या निरन्तर कम होती जा रही है। पुन्नी, बासमती, क्वारी, काला जीरा, काला नमक आदि चावल की जातियां, के-68 सी-306, मुद्दिलवा आदि गेहूं की जातियां, जौनपुरी मक्का, देशी ज्वार, बाजरा आदि कम हो रहे हैं। 

बैगन टमाटर, रामदाना, सेम, कुकरबिट आदि कहीं-कहीं पर दिखाई पड़ते हैं। इन फसलों का उत्पादन अतीत में बड़े पैमाने पर किया जाता था। अतीत में बड़े पैमाने पर किया जाता था। वैज्ञानिक कृषि के कारण अधिक उत्पादन बाली फसलों का उत्पादन किया जाने लगा। पुरानी किस्म की फसलों से उत्पादन कम होता था। जिसके कारण इनकी मांग कम होती रही। जिसके फलस्वरूप इनकी मात्रा बहुत कम रह गई। यहां यह उल्लेख करना प्रासंगिक है कि विश्व में 10,000 प्रजातियां खाद्य योग्य है। यद्यपि हम अपने 90 प्रतिशत पोषण हेतु केवल 30 प्रतिशत प्रजातियों पर ही निर्भर है।

4. दुर्लभ जातियां (Rase Species)

आधुनिक युग में जोब जन्तुओं, फसलों पेड़- पौधों आदि की संख्या निरन्तर कम होती जा रही है। यह एक भौगोलिक क्षेत्र में सिमट कर रह गई है। बासमती चावल का उत्पादन केवल उत्तर भारत और पाकिस्तान में हो रहा है। देवदार, चन्दन पड़ाक के वृक्ष क्रमशः हिमालय क्षेत्र, कर्नाटक, अण्डमान क्षेत्रों में विद्यमान हैं। जरवा, सौम्वेन, आंगी सेन्टिनल अण्डमान की जनजातियां हैं, जिनकी संख्या बहुत कम रह गई हैं। कमोडो ड्रेगन नामक छिपकौली अब केवल इण्डोनेशिया के एक द्वीप पर ही पाई जाती हैं।

जीवों के ह्रास के कारणों का वर्णन कीजिए।


जैव विविधता का क्षरण एक प्राकृतिक प्रक्रिया है और प्रकृति इस क्षरण का समायोजन अपने तरीके से कर लेती है। किन्तु वर्तमान में जैव विविधता क्षरण का संकट मानवीय हस्तक्षेपों के कारण हो रहा है जिनमें मुख्य रूप से नगरीकरण, औद्योगीकरण, जनसंख्या विस्फोट, कृषि का वैज्ञानिककरण आदि के कारण विगत 70 वर्षों से जैव विविधता में क्षरण तीव्र गति से हो रहा है। 

मानवीय क्रियायें जैव विविधता के लिए अत्यन्त हानिकारक है। विकास की प्रवृत्ति से रसायनों का प्रयोग जैव विविधता को तीव्र गति से क्षरित कर रहा है, साथ ही साथ मानव क्रियाओं एवं उनके द्वारा उत्पन्न परिवर्तनों से जीवों को एक स्थान से दूसरी स्थान पर स्थानान्तरित एवं परिवर्तनशील परिस्थितियों में समायोजना के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पा रहा है। फलस्वरूप जीवों के समाप्त होने की सम्भावना बढ़ जाती है।

1. प्रदूषण :

बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण से जैव विविधता का ह्रास हुआ है। सागरीय प्रदूषण द्वारा प्रवाल प्रजातियां प्रभावित हुई है। औद्योगिकी बहिस्रावों, अपशिष्टों आटोमोबाइल द्वारा हानिकारक गैसों का उत्सर्जन तथा कृषि में प्रयोग किए जाने वाले कीटनाशकों का प्रभाव जैव विविधता पर पड़ता है। रसायनिक तत्व पोषण स्तर 1 में प्रवेश कर द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ पोषण स्तरों तक पहुंच जा रहे हैं। 

ये सभी पोषण स्तरों में हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करते हैं। फलस्वरूप जैव विविधता का तीव्र गति से क्षरण हो रहा है। एक शोध के अनुसार गिद्धों के विलुप्त होने के कारण कीटनाशकों का प्रयोग है क्योंकि पशुओं के शरीर में संचित कीटनाशकों का वह भक्षण करता है।

2. आवासों का विनाश 

विश्व में जैव विविधता ह्रास का प्रमुख कारण शताब्दी में किया गया उनके आवासों का विनाश है। तीव्र गत से वनोन्मूलन करके वन्य जीवों को एकाकी समूहों में विभक्त कर दिया गया जो विपदाओं से निपटने में असक्षम है। एशिया के उष्ण कटिबन्धीय देशों में 65% बन्य जीवों के आवास नष्ट कर दिए गए हैं। 

इनमें विशेषतः बंग्लादेश (94 प्रतिशत), श्री लंका (85 प्रतिशत), हांगकांग (95) प्रतिशत), वियतनाम (80 प्रतिशत) प्रमुख हैं। सामान्य दशाओं में छोटी संख्या में मिलने वाले जीव समुदाय वंश वृद्धि करने में पर्याप्त सक्षम नहीं होते हैं। विश्व में वन, आर्द्र भूमि, तथा अन्य बड़े जैविक सम्पन्नता वाले पारिस्थितिकी तन्त्र मानव तन्त्र मानव जनित कारणों से लाखौं प्रजातियों के विलुप्त होने की समस्या से जूझ रहे हैं। आवासों का विनाश करके हमने न केवल प्रमुख जातियों को विलुप्त किया है वरन् ऐसे अनेक आतियों का विलोपन कर दिया है जिनसे हम आज तक अवगत नहीं थे।

3. आवासों का बिखराव

वन्य जीवों के आवास विगत शताब्दी में अनेक विकास की क्रियाओं के कारण बिखराव की स्थिति में आ गए हैं। क्योंकि बड़े आवासों के मध्य सड़के, पर्यटक स्थल, नहर, कस्बें तथा विद्युत स्टेशनों का निर्माण कर उन्हें तोड़ दिया गया है। इन सभी कार्यों में मूल परिस्थितिकी दशाओं से जैव विविधता में कमी आने लगती है।

4. वन्य जीवों का अवैध शिकार

विश्व के अन्य जीवों के अवैद्य शिकार एवं व्यापार के कारण उनके तीव्रता से विलुप्त होने का संकट उत्पन्न हो गया है। वन्य जीवों का खाद्य पदार्थों के रूप में उपयोग के अतिरिक्त इनसे ऐसे उत्पाद प्राप्त किए जाते हैं जिनमें समूर (Furs), खालें (Hides). सौध (Horne), जीवित नमूने तथा चिकित्सा उपयोग की गौण वस्तुएं सम्मिलित है। 

एशिया, अफ्रीका तथा लैटिन अमेरीका के विकासशील देशों में पाई जाने वाली सम्पन्न जैव विविधता आज विश्व में अन्य जीवों एवं जन्तु उत्पादों की मुख्य स्रोत बन रही हैं। इन देशों से बन्य जीव उत्पादों की आपूर्ति बढ़ती जा रही है जब कि यूरोपीय, उत्तरी अमेरिका तथा कुछ एशियाई देश इन उत्पादों के मुख्य आयातक हैं। 

जापान, ताइवान एवं हांग कांग विश्व क कुल बिल्ली आयातक हैं। जापान, तापइवान एवं हांग कांग विश्व के कुल बिल्ली एवं सांपों की चमड़ों का तीन चौथाई आयात करते है तथा इतनी ही मात्रा में यूरोपीय देश जीवित पक्षियों का आयात करते हैं।

वन्य जीवों का अवैध व्यापार जीभ के स्वाद के साथ ही चिकित्सा उपयोग में भी बढ़ रहा है। चीन में लम्बे समय से सेक्स क्षमता बढ़ाने के लिए बार्षों की बलि देने की परम्परा रही है। भारत में बड़ी मात्रा में बाघों की तस्करी की गई जिससे विगत पांच दशकों में तीव्रता से इनकी संख्या घट गई है। 

वन्य जीवों के अवैध व्यापार से हाथी अधिक प्रभावित हुआ है। अफ्रीका में इसका व्यापार सबसे अधिक हुआ है। एक गणना के अनुसार सन् 1980 में अफ्रीका में 1-3 मिलियन हाथी थे जो एक दश बाद घटकर आधे रह गए। इस प्रकार वन्य जीवों का अवैध व्यापार होने से ही इनके विलुप्त होने का खतरा बढ़ गया है।

5. स्थानान्तरी कृषि :- उष्ण कटिबन्धीय वर्षा प्रचुर वन क्षेत्रां में प्राचीन काल से स्थानान्तरी कृषि की जाती है लेकिन विगत शताब्दी में जनसंख्या के तीव्र गति से बढ़ने से इसे त्वरित कर बड़े पैमाने पर वनों को साफ किया गया है, जिसका प्रभाव जैव विविधता पर पड़ता है।

मायर्स एवं अन्य साथियों में विश्व में 25 'हाट-स्पाट' की पहचान की है। जो पृथ्वी तल के 1.4 प्रतिशत भाग पर विस्तृत है तथा यहाँ विश्व की कुल पादप जातियों का 44 प्रतिशत तथा कुल कशेरूकी जातियों को 35 प्रतिशत भाग पाया जाता है।

विश्व में चिन्हित कुल 25 हॉट-स्पॉट (NCERT के अनुसार 34 हॉटस्पाट है) में से 2 भारत में (NCERT के अनुसार भारत में 3 हॉटस्पाट हैं) स्थित है। जिनका विस्तार पड़ोसी देशों की सीमाओं तक है। भारत का प्रथम हॉट स्पॉट पश्चिमी घाट है जिसका विस्तार श्रीलंका तक है। इसका हॉट-स्पाट पूर्वी हिमालय है यह म्यामार तक विस्तृत है। (NCERT के अनुसार तीसरा हिमालयी क्षेत्र है)। 

इन तीनों ही स्थलों में पादप जगत की सम्पन्नता एवं जातिय क्षेत्र विशेषीपन की बहुलता पाई जाती है। विश्व की ज्ञात पादप जातियों के 30 प्रतिशत क्षेत्र विशेशी पादप जातियां भारत में पाई जाती हैं। भारत में 5150 जातियां क्षेत्र विशेषी है तथा 1650 जातियां पश्चिमी घाट में पाई जाती है।

 विलुप्त हो रहे जीवों का संरक्षण किस प्रकार किया जा सकता है ?


जैव विविधता की आवश्यकता इस बात से स्पष्ट हो जाती है कि यदि कल्पना करें कि सिनकोना या पैनिसिलियम का विलुप्तीकरण इनके महत्व के आविष्कार के पहले हो गया होता तो क्या होता है ? इसलिए सभी जातियों चाहे वे आर्थिक रूप से उपयोगी हो या न हो, पारिस्थितिको तन्त्र के लिए उपयोगी है, क्योंकि वन्य पौधे एवं जन्तु पारिस्थितिकी तन्त्र की उन्नति के लिए आनुवंशिक पदार्थ प्रदान करते हैं। 

भारत के जंगली तरबूज से कैलीफोद्रिया में तरबूज फसल पर होने वाले मिल्ड्यू (Mildew) रोग के प्रतिरोध के लिए जीन्स प्राप्त की गई। इसी प्रकार 1963 में उत्तर प्रदेश में वन्य चावल एकत्र किया गया जिससे प्राप्त जीन में ग्रासी स्टंट बायरस से होने वाले 30 मिलियन धान की फसल वाले खोत को संक्रमित होने से बचाया गया। इन्डोनेशिया की कांस घास से गन्ने के रोग रैंड रॉड (Red Rot Disease) के प्रतिरोध की जीन्स प्राप्त की जाती है। 

वर्तमान में कुछ प्रमुख फसल किस्मों के अत्यधिक उपयोग ने किस्मों को विविधता या फसल की विविधता को कम कर दिया है। एक आकलन के अनुसार सन् 1950 में भारतीय किसान चावल की लगभग 30,000 किस्मों को उगाता था। सन् 2000 तक यह संख्या घटकर 50 रह गई और आगे केवल 10 किस्में ही 75 प्रतिशत कृषि क्षेत्र को आच्छादित करेंगी। अब फसलो की रूढ़िवादी एवं भूमि प्रजातियों को कृषि अब अधिकांश जनजातियां समाज तक सीमित रह गई हैं। अतः इनके संरक्षण की आवश्यकता है।

जीव प्रजात्तियां एवं जातियों के अनवरत नष्ट होने की प्रक्रिया जैव विविधत क्षरण कहलाती है। जैव-विविधता वायु, जल एवं भूमि की भांति एक मुख्य प्राकृतिक संसाधन है। इसका क्षरण होना पर्यावरण के लिए हानिकारक है। कृषि का वैज्ञानिकरण हो रहा है। उत्पादन अधिक प्राप्त करने के लिए अन्यान्य प्रकार के रसायनिक प्रदूषकों का प्रयोग किया जा रहा है अनेकों जीव प्रजातियां नष्ट हो रही हैं। जल प्रदूषण बढ़ रहा है। फलस्वरूप जल में रहने वाले जीव नष्ट हो रहे हैं जनसंख्या के अनियन्त्रित विकास से भी जैव विविधता का क्षरण हो रहा है।

विकास प्रक्रिया प्रथमतः विक्रति, तत्पश्चात् विनाश उत्पन्न करती है। पर्यावरण एवं प्राकृतिक संसाधनों के आधार पर समाज का भौतिक विकास उतना अधिक होगा। मनुष्य की लोलुप गिद्ध दृष्टि प्रकृति प्रदत्त अनुपम संसाधनों का अधक से अधिक उपयोग कर सुखपूर्वक जीवन यापन पर टिकी हैं। फलस्वरूप वह अपने लिए एवं भावी पीढ़ी के लिए विनाश की पृष्ठिभूमि तैयार करता जा रहा है। हमें विकास के साथ-साथ पर्यावरण की मौलिकता पर ध्यान देना होगा यदि भौतिक विकास की प्रक्रिया को नियन्त्रित नहीं किया गया तो एक दिन भूतल पर विद्यमान अन्यान्य अवयव समाप्त हो जाएगें।

मानव को विकासशील प्रवृत्ति से प्राकृतिक वास पर संकट उत्पन्न हो गया है। जलवायु परिवर्तन की ओर अग्रसर है। वर्षा पर आधारित वर्गों पर इसका प्रभाव पड़ रहा है, वचन नष्ट हो रहे हैं। इनमें रहने वाले अन्यान्य जीवों का अस्तित्व सदैव के लिए समाप्त हो रहा है। बनों में रहने वाली जन्तु प्रजातियों एवं वनस्पतियों की यथार्थ संख्या का अनुमान लगाना कठिन होता जा रहा है। भूतल पर जो प्राणि जातियां अवशेष हैं उनकी पारिस्थितिकीय एवं जैव-विविधता का अध्ययन एवं अनुसन्धान तत्काल आवश्यक हो गया है। क्षेत्र अथवा देश विशेष पर ही नहीं अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इस दिशा में अग्रसर होने की आवश्यकता है।

आधुनिक समय में पादप एवं प्राणि जातियों के संरक्षण पर विशेष बल दिया जा रहा है। संरक्षण की दृष्टिकोण से इसे हम निम्नलिखित दो वर्गों में बांट सकते हैं -

1. स्थानिक संरक्षण (In-siter Conservation) :-

देश में वन्य जीवन नीतियों के निर्धारण हेतु 1952 में इण्डियन बोर्ड ऑफ वाइल्ड लाइफ (Indian Board of wild Life) की स्थापना की गई। इसकी पहली बैठक में भारत ने वन्य जीवन के संरक्षण के लिए एक एकीकृत कानून बनाने की अनुशंसा की गई। 1972 में वाइल्ड लाईफ प्रोटेक्शन एक्ट लागू किया गया, जिसे सभी राज्यों में स्वीकार कर लिया। 15वें सम्मेलन, 1982 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के समय वैज्ञानिक रूप से प्रबन्धित सुरक्षित क्षेत्रों की स्थापना पर बल दिया गया। 

जैसे - राष्ट्रीय उद्यान, वचन अभ्यारण्य, रोजर्व जीव मण्डल तथा अन्य क्षेत्र। वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट को ठीक लागू करने के लिए दिल्ली, मुम्बई, कोलकत्ता, चेन्नई चार क्षेत्रों में एक-एक उपनिदेशक नियुक्त किए गए। ये कन्वेंसन आन इण्टरनेशनल ट्रेड इन एन डेन्जर्ड स्वौशीन CITES (Convention on International trade in Endangered Species) के लागू करने के लिए उत्तरदायी होते हैं। CITES Species राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर संकटापन्न जातियों क `आयात/निर्यात पर रोक लगाती है। ये चारों स्थानीय अधिकारियों की वन्य जीवन संरक्षण में सहायता करते हैं। यहां यह ध्यातव्य है कि स्वस्थानिक संरक्षण के अन्तर्गत वानस्पतिक उद्यान शामिल नहीं किए जाते। अब तक विश्व के 3 प्रतिशत क्षेत्र इसके अन्तर्गत आते हैं।

2. अन्यत्र संरक्षण (Ex-Situ Conservation) 

जब इन सीड संरक्षण में किसी जाति के पौधे के बने रहने की सम्भावना कम रहती है और उसके विलुप्त होने की आशंका बढ़ जाती है तो ऐसी सिथति में उसके संरक्षण की विधि संयुक्त एक्स-सीड (Ex-Situ) होती है। अर्थात् मूल आवास से दूर ले जाकर अन्यत्र उन जीव एवं वनस्पतियों को संरक्षित किया जाता है तब इसे अन्यत्र संरक्षण कहते हैं। 

इस विधि में संकटग्रस्त जीवों व वनस्पतियों का सर्वेक्षण कर उन्हें उचित जलवायु प्रदान की जाती है (वन्य जीवों को कृत्रिम आवासों में स्थानान्तरित कर उन्हें उपुर्यक्त भोजन उपलब्ध । कराया जाता है। वनस्पतियों के संरक्षण के लिए वानस्पतिक उद्यान तथा कृत्रिम उद्यान तथा कृत्रिम ग्रीन-हाऊस निर्मित किए जाते हैं।

प्राणि विज्ञान उद्यानों वानस्पतिक उद्यानों, बोज बैकों, पराग व जीवाणु बैंकों आदि की देख-रेख के अन्तर्गत प्रजनन क्रिया को विकसित करना चाहिए। ये जैव संरक्षण के सबसे सुरक्षित स्थान होते है। उल्लेशनीय है कि जीन बैंक पर प्रतिबन्ध लगाना अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि इनके द्वारा जैव विविधता को भारी क्षति पहुंच रही है वर्तमान समय में तीव्र गति से जैव प्रौद्योगिकी का विकास किया जा रहा है इससे जैव विविधता को भयानक खतरा का सामना करना पड़ेगा। क्योंकि इन विधाओं का मुख्य उद्देश्य उपयोगी गुणों का चयन है।

औद्योगिकीकरण से वायु, जल, भूमि आदि प्रदूषण तीव्र गति से बढ़ रहा है उसका प्रभाव जीव-जन्तुओं एवं वनस्पतियों पर पड़ रहा है। फलस्वरूप प्रदूशण उत्पन्न करने बाली इकाईयों पर प्रतिबन्ध लगाना आवश्यक है। विकसित देशों में इसका प्रभाव अधिक देखा जा रहा है।

जैव विविधता के संरक्षण के लिए पर्यावरणीय अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है। प्रजाति एवं पारिस्थितिकी प्रणाली के विषय में अध्ययन बहुत कम हुआ है। पारिस्थितिकी प्रणाली, जीव जन्तु समूहों, उनकी संख्या एवं प्रसार, प्रकृति भोज्य पदार्थों की स्थिति आदि के विषय में सूक्ष्म अध्ययन की आवश्यकता है, साथ ही साथ विश्व स्तर पर प्रत्येक देश को जैव विविधता संरक्षण कानून बनाना चाहिए। 

अनेक परियोजनाओं के माध्यम से जैव विविधता के मूल्यांकन एवं प्रबन्धन की नितान्त आवश्यकता है। इससे किन क्षेत्रों में किन कारणों से जैव विविधता का क्षरण हो रहा है इसका समुचित ज्ञान हमें प्राप्त होता रहेगा। जिसके फलस्रूवरूप संरक्षण की अनेक योजना एवं परियोजनाएँ तैयार की जा सकेंगी।

जनमानस में नैतिक बेध एवं कर्तव्य भावना का उदय होना जैव विविधता संरक्षण के लिए नितान्त आवश्यक है। पेड़-पौधों, (जीवों मनुष्यों) के प्रति मनुष्य का क्या कर्तव्य है, का ज्ञान प्रदान किया जाना चाहिए। जो इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन कर सकता है। भारतीय धर्मग्रन्थ इसय परिप्रेक्ष्य में उपदेशात्मक है, अनेक कहानियों, कथानकों एवं कथाव्याख्यानों के माध्यम से जीर्वो एवं बनस्पतियों के प्रति मनुष्य कर्तव्य का वर्णन किया गया है। 

जीव-जन्तुओं एवं वनस्पतियों के अभाव में प्रकृति का क्या स्वरूप होगा, इस विषय पर चिन्तन करने की आवश्यकता है। जैव विविधता एवं पारिस्थितिकी प्रणाली के संरक्षण के विषय में सभी लोग जब तक आगे नहीं आएंगे, तब तक जैव विविधता संरक्षण नहीं हो सकता।

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