पर्यावरण संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रयास

पर्यावरण संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रयास - International efforts to protect the environment


पर्यावरण संरक्षण का अर्थ (Meaning of environmental protection) पर्यावरण ईश्वर द्वारा प्रदान किया गया एक अनोखा एवं अमूल्य उपहार है, जो सम्पूर्ण मानव समाज का महत्वपूर्ण अभिन्न अंग है। जीवन एक धारा की तरह है। इसमें अनेक समान तथा असमान परिस्थितियाँ आती रहती हैं। असमान स्थिति उस समय उत्पन्न होती है जब प्रकृति का क्रम टूटता है।


आज प्रकृति के दोहन से सन्तुलन बिगड़ता जा रहा है। अनेक आपदाओं का आना मनुष्य की छेड़‌छाड़ का परिणाम है। वर्तमान समय हमारे समक्ष एक समस्या के रूप में खड़ा है। आप सम्पूर्ण विश्व में पर्यावरण का रूप बिगड़ा है। बढ़ती जनसंख्या, वृर्षों को काटना, उद्योगों धन्धों से जल का दोहन, अधिक गर्मी-सदाँ से मानव दुःखी है।


विश्व की ज्वलंत समस्या में से एक समस्या पर्यावरण प्रदूषण की है। अगर पर्यावरण इसी तरह दूषित होता रहा और मानव प्रकृति से छेड़-छाड़ करता रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब मनुष्य की जिन्दगी खतरे में पड़ जाये। प्राचीन काल से ही हम अपने धार्मिक संस्कारों को वजह से प्रकृति के प्रति संवेदनशील रहे हैं। लेकिन हमारी लापरवाही से पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है। विश्व में 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाना, इसी दिशा में एक सार्थक प्रयास है।


विश्व स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के लिये लगातार प्रयास किये जा रहे हैं। पर्यावरण और ईश्वर प्रकृति के ऐसे दो पहलू है जिनकी पूजा और महत्ता के बिना जीवन अधूरा है। अतः धर्म और जन चेतना, तकनीकी शोध में परिवर्तन, शिक्षा एवं संस्कार तथा जीवनशैली में परिवर्तन लाकर यदि हम पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक होते हैं, तभी हमारा जीवन सफल होगा।


पर्यावरण संरक्षण के उद्देश्य (Objectives of environmental protection)


आज मानव सामाजिक पर्यावरण तथा प्राकृतिक संसाधनों से अधिक लाभ प्राप्त कर रहा है। अतः उसे प्राकृतिक सन्तुलन को बनाये रखने का कर्तव्य निभाना चाहिए। मनुष्य एक बुद्धिजीवी होने के नाते उससे वह आशा की जाती है कि वह प्राकृक्तिक साधनों की अपनी आवश्यकता के अनुसार सन्तुलित करके ऐसे प्रयास करे कि प्राकृतिक साधन नष्ट भी न होनें पायें तथा प्रकृति का सन्तुलन भी बना रहे।


इस दृष्टि से छात्रों के समक्ष विषय-वस्तु एवं संसाधन ऐसे एंग से प्रस्तुत किये जायें कि ने अपना मूल्यवान योगदान दे सकें। अतः शुद्ध पर्यावरण को बनाये रखने के लिये विद्यालय कार्यक्रम को निम्नलिखित उ‌द्देश्यों को स्थान दिया जाना चाहिए।


1. छात्रों को इसका बोध कराना, चाहिए कि प्रकृति को सन्तुलित बनाने की दृष्टि से विभिन्न जीवों व पेड़-पौधों का बचा रहना अनिवार्य है।

2. छात्रों को इस सम्बन्ध में विश्लेषणात्मक रूप से जानकारी देना कि प्रकृति के आस-पास तथा उससे अलग-थलगे रहने पर हमें क्या-क्या लाभ व हानि होती हैं।

3. छात्रों को इस तथ्य की जानकारी देना कि मूल-रूप से मानव, प्राकृतिक साधन व जीवन-जन्तु एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं।

4. छात्रों को प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों के लाभ व हानियों से अवगत कराना।

5. छात्रों को इस तथ्य से अवगत कराना कि हमें जिन प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करते हैं उनका पूर्ण निर्माण नहीं यिका जा सकता।

6. छात्रों को इस तथ्य से अवगत कराना कि मानव जीवन के तौर-तरीके प्रकृति से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध हैं।

7. ऐसी विभिन्न दुर्घटनाओं को रोकने के लिये प्रक्रिया व सुरक्षामानक तैयार किये जायेंगे जो प्रदूषण का कारण बनती हैं।

8. खतरनाक तत्वों को सम्भालने के लिये कुछ अलग से विशिष्ट प्रयास किये जायेंगे।

9. ऐसे तत्वों का बारीकी से निरीक्षण किया जायेगा जो प्रदूषण का कारण बनते हैं।

10. पर्यावरण सम्बन्धी समस्या से निपटने के लिये उच्च स्तर के शोध कार्यों को प्रोत्साहन दिया जायेगा।

11. पर्यावरण प्रदूषण सम्बन्धी सूचनाओं को एकत्रित किया आयेगा और उनका प्रचार-प्रसार किया जायेगा।

12. प्रदूषण से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार के विवरण पुस्तकाओं के कोड या गाइड को तैयार किया जायेगा।


पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी अधिनियम 1986


पर्यावरण संरक्षण के लिये भारत सरकार ने पर्यावरण अधिनियम 1986 बनाया गया जिसका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है -


आधुनिक युग में बढ़ती जनसंख्या तथा उद्योग-धन्धों ने वायु प्रदूषण को जन्म दिया है। बायु प्रदूषण मानव समाज के लिये अभिशाप बन गया है। मानव जाति ही नहीं बल्कि बनीय जीव-जन्तु प्रदूषण से तृप्त हैं। यहीं कारण है कि आज भारत के संविधान में पर्यावरण संरक्षण पर ध्यान दिया गया है।


हमारा न्यायालय भी सजग व क्रियाशील हैं। केरल न्यायालय ने कहा है कि गाँव व शहरों में व्याप्त वायु प्रदूषण सबसे अधिक मनुष्य के कारण व उद्योग-धन्धों से फैल रहा है जिससे दमा, खाँसी, विभिन्न रोग, आँखों में जलन, सिर दर्द जैसे रोग हो जाते है, औद्योगिक क्षेत्रों में वृक्षों के पत्ते काले पड़ जाते हैं।


जून 1972 में स्टॉकहोम में प्रदूषण की समस्या के समाधान हेतु अनेक निर्णय लिये गये। भारत सरकार ने इस सम्बन्ध में आवश्यक प्रावधान करने का निर्णय लिया। इस प्रस्ताव को क्रियात्मक करने के लिये 1981 में वायु प्रदूषण निवारण तथा नियन्त्रण अधिनियम पारित किया गया। यह अधिनियम 16 मई, 1981 से भारत में लागू किया गया। इसय अधिनियम का मुख्य उ‌द्देश्य मनुष्य के जीवन को वायु प्रदूषण के विपरीत प्रभावों से बचाना है तथा इस सम्बन्ध में कठिन निर्णय लिये जाने की सिफारिशें ली गई।


पर्यावरण संरक्षण में प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड की भूमिका (Role of Pollution Control Board in Environmental Protection)


प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड की स्थापना पर्यावरण व इससे सम्बन्धित विषयों के संरक्षण व व सुधार के लिए की गई है। यह केन्द्र सरकार को इस उ‌द्देश्य के लिए सभी आवश्यक कदमों को उठाने के लिए सामान्य शक्तियाँ उपलब्ध कराता है-


1. पर्यावरण की गुणवत्ता को संरक्षित व सुधार करने के लिए, और

2. पर्यावरण प्रदूषण को घटाने, रोकने व नियन्त्रित करने में।


अन्य शक्तियों में केन्द्र सरकार के पास निम्न शक्तियाँ है -


1. पर्यावरण प्रदूषण को घटाने, नियन्त्रण व रोकने के लिए राष्ट्रव्यापी कार्यक्रम के लिए योजना बनाना व क्रियान्वयन करना।

2. पर्यावरण की गुणवत्ता के लिए इसके विभिन्न पहलुओं के अनुसार मानकों को निर्धारित करना।

3. विभिन्न स्रोत, जहाँ भी हैं, के पर्यावरणीय प्रदूषकों के उत्सर्जन व निष्पादन के लिए मानक निर्धारित करना।

4. क्षेत्रों को प्रतिबन्धित करना जिसमें उद्योग, प्रक्रिया व ऑपरेशन नहीं किया जा सकता या कुछ सुरक्षा मानकों से विषय को लाया जा सकता है।

5. विभिन्न दुर्घटनाएँ, जो प्रदूषण का कारण बन जाती हैं, को रोकने के लिए प्रक्रिया व सुरक्षा मानकों को निर्धारित करना।

6. खतरनाक तत्वों को सम्भालाने के लिए प्रक्रिया निर्धारित करना।

7. प्रदूषण का कारण बनने वाले तत्वों का निरीक्षण।

8. पर्यावरणीय प्रदूषण की समस्या से सम्बन्धित शोध को प्रायोजित व जाँच को पूरा करना।

9. पर्यावरण प्रदूषण पर सूचनाओं का संग्रहण व प्रचार, और

10. प्रदूषण से सम्बन्धित मैन्युअलों, कोड या गाइडों को तैयार करना।


पर्यावरण संरक्षण में विद्यालय की भूमिका तथा पर्यावरणीय आन्दोलनों एवं सम्मेलन


पर्यावरण संरक्षण में शिक्षक (विद्यालय) की भूमिका (Role of Teacher Schools) :- प्राथमिक, उच्च प्राथमिक, माध्यमिक तथा उच्च माध्यमिक संस्थाओं में पाठ्यक्रम के अन्तर्गत पर्यावरण सम्बन्धी अध्ययन, अध्यापन करना आज समय की माँग है।


आज के बालक कल के भविष्य है और उन्हें विभिन्न स्तरों पर अपने निर्णय लेने होंगे। अतः इस भावी पौढ़ों हेतु ऐसी प्रणाली व्यवस्थित की जाये जिसमें उनमें पर्यावरण सम्बन्धी अभिवृत्तियों का विकास हो सके। आज पर्यावरण प्रदूषण की रूपरेशा विकराल रूप धारण कर चुकी है।


इस दृष्टि से पर्यावरण संरक्षण के सम्बन्ध में निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया जा सकता है-


1. पर्यावरण का सही ज्ञान व बोध कराया जाये।

2. इसके अन्तर्गत पर्यावरण सम्बन्धी घटकों की जानकारी प्रदान की जाती है।

3. पर्यावरण से जुड़े प्रदूषकों का भी ज्ञान दिया जाता है।

4. इन प्रदूषणों का मानव तथा जीवों पर पड़ने वाले कुप्रभावों की जानकारी देना।

5. पर्यावरण संरक्षण के विभिन्न साधनों की जानकारी दी जाती है।

6. पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी अधिनियों की जानकारी दी जाये।

7. पर्यावरण विघटन सम्बन्धी जानकारी देना।


पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी आन्दोलन


पर्यावरण संरक्षण हेतु चलाये गये कुछ प्रमुख आन्दोलन इस प्रकार है-


1. चिपको आन्दोलन :- सुन्दरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में वृक्षों की रक्षा व समस्त पर्यावरणीय संसाधनों का संरक्षण हेतु आन्दोलन।

2. एप्पिको आन्दोलन: कर्नाटक के श्री पाण्डुरंग हेगड़े ने वन विकास और संरक्षण हेतु चिपको आन्दोलन संचालित किया।

3. शान्त घाटी आन्दोलन केरल प्रान्त में जैव विविधता को क्षति को रोकने हेतु।

4. नर्मदा बचाओं आन्दोलन मेधा पाटेकर ने अपनी सहयोगी अरुन्धती राय एवं बाबा आमटे के साथ जैव विविधता और आदिवासियों के संरक्षण हेत, आन्दोलन चलाया ।


पर्यावरण और विश्व चेतना (Environment and World Consciousness)


पर्यावरण के प्रति उत्तरदायित्व जगाने एवं चेतना को व्यापक बनाने के लिए सन् 1972 में स्टॉकहोम में आयोजित पर्यावरण सम्मेलन में यह विचार रखा था कि विश्व के सभी देश 5 जून को "विश्व पर्यावरण दिवस" मनायेंगे। स्वौडन के प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में हमारी इस एकमात्र पृथ्वी के बिगड़ते मौसम, घटते जंगलों, लुप्त हो रहे पौधों, पेड़ों, जीवों के साथ-साथ विकसित उत्तर (यूरोप, अमेरिका, कनाडा तथा जापान) तथा विकासशील/अविकसित दक्षिण के मध्य बढ़ती खाई पर ध्यान केन्द्रित किया गया था।


उसके बाद ब्राजील के शहर रियोडि जेनेरो में पृथ्वी शिखर सम्मेलन (1929) में संयोजक श्री मारिस स्ट्रॉग ने कहा था, "सभी देशों के सूत्रधार भली-भांति समझ लें कि अगर जंगल जैसे प्राकृतिक संसाधनों का विनाश बन्द नहीं किया गया और अधिकतर लोगों को निहायत गरीबी के अभिशाप से मुक्ति नहीं दिलाई गयी तो मानव सम्पदा और उसे धारण करने वाली धरती पर और कोई नहीं बचेगा।"


पहले लोग यह सोचते थे कि जहरीला कचरा अपने देश या अपने घर के आगे मत फेंकों, अब तो सब समझ गये कि कूड़े को वहीं भस्म कर दों, क्योंकि फेंकनें के लिए जगह नहीं बची और कहीं भी फेंकने पर वह हवा, पानी, मि‌ट्टी में घुलकर सबको परेशान करेगा। साझी विरासता और साझा भविष्य, जैसे आदर्श वाक्य अब पुस्तकों से निकलकर आम आदमी के मन में समा गये हैं।


विश्व सम्मेलन, जोहान्सबर्ग 2002 (World Conference, 2002)


सन् 1992 में पृथ्वी सम्मेलन रियोडि जेनेरो (ब्राजील) में आयोजित हुआ था जिसमें 150 देशों के प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। इसमें एजेण्डा 21 जैब संरक्षण सन्धि और रियो घोषणा-पत्र उल्लेखनीय तथ्य थे। एजेण्डा 21 के अन्तर्गत अगली सदी में पृथ्वी को हरा-भरा बनाने के लिए एजेण्डा 21 प्रसिद्ध है तथा टिकाऊ विकास पर्यावरण सम्बद्ध और सुरक्षित विकास हेतु प्रयास किये गये। द्वितीय विश्व पर्यावरण सम्मेलन दक्षिणी अफ्रीका को जोहान्सबर्ग में सन् 2002 में हुआ जिसे रियो दस (10) कहा गया है।


जलवायु परिवर्तन के संकट को देखते ए भारत का प्रयास सराहनीय है। कार्बन उत्सर्जन कटौती के लिए सरकार ने संयुक्त राष्ट्र को जो योजना सौर्पी है, उसे 15 साल में पूरा करना आसान नहीं होता। हाल ही में एक संस्था सीएसटीईपी के किए गए एक अध्ययन के मुताबिक सरकार ने पिछले सालों में कोशिशें तो काफ की है लेकिन उनमें दिशा और तालमेल नहीं दिखाई दिया। अगर सरकार नये सिरे से प्रयास करे तो भी वर्ष 2030 तक देशों में 40% लोग परम्परागत ईंधन पर ही निर्भर कर रहे होंगे।


वर्तमान समय में पर्यावरण की विकृत स्थिति तथा पर्यावरण में अनहोनी सम्भावनाओं को लेकर राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विचार तथा वाद-विवाद होना 70 के दशक से ही प्रारम्भ हो गया था। परन्तु पर्यावरण की समस्याओं को लेकर एक जन आन्दोलन की नींव 1972 में स्टॉकहोम (स्वीडन) में हुए अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन द्वारा मानी जाती है।


"मानव पर्यावरण" पर आधारित इस अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में लगभग 100 देशों के प्रतिनिधि, वैज्ञानिक, जनसंख्या विशेषज्ञ, डेमोग्राफर्स, मीडियाकर्मी तथा हजारों जनप्रतिनिधि शामिल हुए। इस सम्मेलन में सभी ने पर्यावरण के सम्बन्ध में अपने-अपने मत प्रस्तुत किये। इसी आधार पर इस सम्मेलन में 26 सूत्री' महाघोषणा-पत्र, (मेग्नाकार्टा) के नाम से पारित हुआ। यह मैग्नाकार्टा विश्व के इतिहास में एक 'ऐतिहासिक दस्तावेज' का रूप ले चुका है।


इस घोषणापत्र में 26 अभिशंसाओं को शामिल किया गया, जिसमें पर्यावरण का सन्तुलन बनाए रखने तथा पर्यावरण की समस्याओं के समाधान हेतु एक स्पष्ट रूपरेखा तैयार की गयी जिसमें प्रत्येक देश को समाधान हेतु अपने स्तर से समर्थन करना था। इस सम्मेलन से हर देश ने अपनी-अपनी पर्यावरण नीति बनाने का निर्णय लिया। इस सम्मेलन के बाद ही बिगड़ते पर्यावरण को सन्तुलित करने के लिए समय-समय पर राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन होने लगा।


घोषणापत्र की अभिशंसाओं के आधार पर ही यूनेस्कों के अन्तर्गत " संयुक्त राष्ट्रीय पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) कमेटी का आगाज किया गया। इसमें लगभग 50 देश सम्मिलित हुए। इसी कमेटी के द्वारा IEEP, का निर्माण किया गया। इस संस्था के द्वारा एक वैज्ञानिक योजना के अनुसार कार्यक्रम को गति दी गयी। इस संस्था तथा राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की बैठकों का आयोजन, अध्ययन, सर्वेक्षण, शोध काकर्य पर्यावरण के क्षेत्र में साहित्य प्रकाश तथा शिक्षण प्रकाशन हेतु विशेष कार्यक्रम आयोजित किये गये। IEEP ने शिक्षण के क्षेत्र में विशेष कार्य किये।


अधिनियम के अन्तर्गत यदि कोई परमिट या लाइसैंस की शर्तों का उल्लंघन करता है तो उसे एक वर्ष की कैद या 2500 रुपये जुर्माना या दोनों सजाएं एक साथ दी जा सकती हैं। यदि प्रथम अपराध गम्भीर है तो कैद की सजा बढ़ाकर तीन वर्ष तक किया जा सकता है। इस अधिनियम की अनुसूची (i) या अनुसूची (ii) के भाग-2 में जो भी जीव सम्मिलित किये गये हैं, उनका मांस, उनकी खाल या किसी भी रूप में प्रयोग करने या पास रखने का दोषी होने पर, उसे एक साल की सजा और 25000 रुपये जुर्माना किया जायेगा। दोष यदि गम्भीर है तो सजा को 6 साल तक बढ़ाया जा सकता है। यदि फिर भी दोषी सिद्ध होता है तो उसकी सजा कम से कम दो साल और तीसरी बार होने पर 6 साल सजा और सजाओं के साथ-साथ 1000 रुपये का जुर्माना भी दिया जा सकता है।


इस प्रकार हम स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं कि इस कानून के लागू होने पर एक आशा जगी थी कि लोग वन्य जीवों को संरक्षण देने, उन्हें किसी भी प्रकार से हानि नहीं पहुंचायेंगे। लेकिन यह आशा व्यर्थ गई और लोग चोरी से पशुओं का शिकार करते रहे और वृर्षों को काटते रहे। यह भी माना गया कि सजा का प्रावधान कम है इसलिए अवैध कार्य हो रहे हैं। इसलिए इस अधिनियम में 2002 में संशोधन किया गया और कठोर दण्ड का प्रावाधान किया गया।


किन्तु आज भी जनसहयोग के अभाव में अपराधी बच जाता है और उस पर आरोप सिद्ध नहीं हो पाता है। जन सहयोग मिलने पर ही फिल्म अभिनेता सलमान खान पर काले हिरन के शिकार का दोष सिद्ध होने पर उन्हें वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम के अन्तर्गत एक वर्ष की सजा सुनाई गई। यदि जन सहयोग मिलता है तो वन विभाग के कर्मचारी भी आवश्यक उपकरण और सुविधाओं के अभावों के नाम पर स्वयं नहीं बचा सकेंगे।


वन संरक्षण अधिनियम 1980 (Forest Conservation) Act, 1980


वन संसाधन जैव सम्पदा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इनकी भूमिका मौसम और जन्तुओं के जीबन की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। पारिस्थितिक वैज्ञानिकों के मतानुसार भारत में 33% क्षेत्रफल में वन होने चाहिए तभी पारिस्थितिक सन्तुलन स्थापित रह सकता है। लेकिन वर्तमान में भारत में वन क्षेत्र 19% है जबकि 1947 में यह वन क्षेत्र 37% था। अतः भारत में घटते वन क्षेत्र को रोकने के लिए भारत सरकार ने वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 लागू किया।


इस अधिनियम के अन्तर्गत किसी आरक्षित वन की अनारक्षित घोषित करने या वन भूमि की गैर वन प्रयोजन के लिए उपयोग में लाने के लिए केन्द्र सरकार की पूर्व अनुमति आवश्यक कर दी गई। इसके साथ ही यह प्रतिबन्ध भी लगाया गया कि वन भूमि को गैर वन भूमि के कार्य हेतु आबंटन होने पर उतने ही या उसके समतुल्य क्षेत्र में वन (वृक्ष) लगाने होंगे।


लेकिन वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 में कई कमियाँ सामने आई जिनके फलस्वरूप अपराधी बच जाते थे। अतः इस अधिनियम को और अधिक कठोर बनाने की आवश्कयता महसूस की गई। इसके परिणामस्वरूप इस अधिनियम में संशोधन किये गये और इन संशोधनों के साथ ही वन (संरक्षण) संशोधित अधिनियम, 1988 लागू किया गया।


वन (संरक्षण) अधिनियम के अनुसार निम्नलिखित प्रमुख बातों पर ध्यान दिया गया-


1. इस अधिनियम के अनुसार बनों की कटाई पर पूर्ण प्रतिबन्ध लागू किया गया।

2. बनों के किसी भी उत्पाद को इस अधिनियम के अनुसार प्राप्त करना दण्डनीय अपराध होगा।

3. यदि कोई अप्रत्यक्ष रूप से भी वर्गों को हानि पहुंचाता है तो वह भी दण्डनीय अपराध माना जायेगा।

4. इस अधिनियम के अनुसार वनों में आग जलाने का अधिकार किसी को नहीं है।

5. जो न आरक्षित हैं उनमें मवेशियों का प्रवेश निषेध है।

6. जो वन क्षेत्र संरक्षित हैं उनमें व्यावसायिक गतिविधियों पर पूर्ण प्रतिबन्ध लागू रहेगा।

7. इस अधिनियम के अनुसार कोई भी राज्य सरकार किसी भी वन क्षेत्र को बिना केन्द्र सरकार की अनुमति के अनारक्षित नहीं कर सकती है।

8. यह अधिनियम स्पष्ट करता है कि कोई भी कूड़ा-करकट बन क्षेत्र में नहीं फेंका जा सकता है।

9. इस अधिनियम वन क्षेत्र पर अतिक्रमण को या किसी भ उद्देश्य के लिए इसका उपयोग करना दण्डनीय अपराध माना जायेगा। यह अधिनियम अभ्यारणों और राष्ट्रीय उद्यान के लिए भी निर्देश देता है जिनका पालन करना अनिवार्य है।


दण्ड विधान (Penalties): की दृष्टि से यह अधिनियम स्पष्ट निर्देश देता है कि आरक्षित वनों को काटना, उनमें पशु चराना, वन के किसी उत्पाद को प्राप्त करना अथवा वनों में आग जलाना दण्डनीय अपराध है। ऐसा करने वाले को 6 माह को कैद या 500 रुपये जुर्माना या दोनों दण्ड एक साथ दिये जा सकते हैं इसके अलावा वन से लकड़ी चोरी करने वाले व्यक्ति को भी 6 माह की कैद या 500 रुपये जुर्माना या दोनों एक साथ सजाएं दी जा सकती हैं। इस अधिनियम के अनुसार वन अधिकारियों को यह शक्ति दी गई है कि वे सन्देह के आधार पर भी किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकते हैं और उसके हथियारों को जब्त कर सकते हैं।


इस प्रकार हम स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं कि वन संरक्षण पर अंग्रेजी कार्यकाल से ही ध्यान दिया जा रहा है किन्तु इनका क्षेत्रफल निरनतर कम होता जा रहा है। इयसका कारण वनों के प्रति जन-चेतना का अभाव, वन अधिकारियों के पास औजारों और उपकरणों की कमी तथा स्टाफ की कमी एवं प्रशासन की प्रबल इच्छा शक्ति का अभाव माना जा सकता है। भारत में भारतीय वन अधिनियम 1972 में लागू किया गया।


इसके अन्तर्गत राज्य सरकारें द्वारा वर्षों का प्रबन्ध किया जाता रहा है। स्वतन्त्रता के बाद 1952 में प्रथम वन नीति घोषित की गई। लेकिन जनसंख्या के दबाव के कारण निरन्तर इमारती लकड़ी की माँग बढ़ने के कारण वन क्षेत्र भी निरन्तर घट रहे हैं। कुछ अवैध आरा मशीनें चल रही हैं। यद्यपि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इन पर अंकुश लगाया गया किन्तु यह भी कानूनी दांब पेज में उलझकर आगे नहीं बढ़ पाया। वन (संरक्षण) अधिनियम 1980 और फिर बन (संरक्षण) संशोधित अधिनियम, 1988 कार्यरत हैं। लेकिन अधिनियम के उपबन्धों को कठोर बनाये जाने पर भी आशातीत सफलता नहीं मिल रही है। अतः आवश्यकता है सरकार की दृढ़ इच्छा शक्ति और जन सहयोग कौ।


  1. भारत में पर्यावरण से सम्बन्धित प्रमुख तीन नीतियां है राष्ट्रीय वन नीति (National Forest Policy, 1988)
  2. प्रदूषण को कम करने के लिए निति की व्याख्या, 1992 (Policy State- ment for abatement of Pollution 1992) और
  3. राष्ट्रीय संरक्षण व्यूह रचना एवं पर्यावरण और विकास पर नीतिगत व्याख्या, 1992 (National Conservation Strategy and Policy State ment on Environment and Development, 1992)


भारतीय कानूनों के अन्तर्गत पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के सेक्शन 2 (9) के अनुसार पर्यावरण में, जल, वायु और भूमि सम्मिलित हैं। इनमें अन्तर्सम्बन्ध दो स्तर पर होता है - प्रथम-जल, बायु और भूमि तथा दूसरे मानव, दूसरे जीवित प्राणी, पौधे, सूक्ष्मप्राणी और प्रोपर्टी के साथ होता है। अतः नीतियों के माध्यम से, कानूनों के माध्यम से आवश्यकता पर्यावरण एवं प्राकृतिक स्रोतों के संरक्षण की, उनके विवेकपूर्ण उपभोग की ओर आवश्यक नियन्त्रण की।


प्रकृति से प्राप्त संसाधन जो प्रकृति से विशुद्ध रूप में प्राप्त हो रहे थे, जनसंख्या के कारण इन संसाधनों में कमी आई और इन संसाध संसाधनों का वृद्धि उपयोग अविवेकपूर्ण करने के कारण प्रदूषण को बढ़ावा मिला। आवास के लिए घने बनी को काट दिया गया परिणामस्वरूप वन क्षेत्र कम होने लगे और इसके परिणामस्वरूप प्रकृति का सन्तुलन बिगड़ने लगा। अविकसित और विकसित देशों का अन्तर बढ़ने लगा।


विकसित देश अधिक सुख-सामग्री का उपयोग करने लगे जबकि अविकसित देशों को जल, वायु और भोजन की पूर्ति भी नहीं हो पा रही है। इसके अतिरिक्त सम्पूर्ण विश्व में पर्यावरणीय संकट पैदा हो गया है। तीव्रगति से औद्योगीकरण के कारण अनेक ऐसी घटनाएं प्नटी हैं जिन्होंने सम्पूर्ण जीबन कौ हिलाकर रख दिया है। उदाहरण के लिएब - 1940 में लॉस ऐंजिल्स (अमेरिका) में धुएं के बादलों से सम्पूर्ण शहर का ढक जाना, पहले बेचैनी, फिर घबराहट और अन्त में सांस लेने में कठिनाई ने हजारों लोगों की जान ले ली।


ऐसी ही घटना 1952 में लन्दन (इंग्लैण्ड) में घटी जिसके कारण लगभग 5000 व्यक्तियों को जान से हाथ धोना पड़ा। यह घटना स्मोग घटना के नाम से जानी जाती है। जापान में मिनीमाटा नामक खाड़ी में अनेक बड़े-बड़े उद्योग केन्द्रित हैं। उनमें से एक कारखाने से निकलने वाली जल उच्छिष्ट में 'एल्काइल मरकरी कम्पाउण्ड' की भारी मात्रा खाड़ी के पानी में मिल जाने से खाड़ी का मानी प्रदूषित हो गया।


परिणामस्वरूप जलीय अनेक जीव मारे गये। और इस खाड़ी से गुजरने वाली मछलियां और जानवरों के भोजन से वहां के लोगों को एक विशेष प्रकार का चकत्ते वाला रोग जिले मिनीमाटा रोग कहा गया, से प्रभावित हुए। इन लोगों में लकवा, हाथ-पैर में जकड़न, मस्तिष्क विकृति, बहरापन आदि कई प्रकार की बोमारिय हो गई। ऐसी ही घटनाएं भारत की भोपाल गैस दुर्घटना है जिसमं लाखों लोग प्रभावित हुए, हजारों मारे गये। ये ऐसी कुछ घटनाएं हैं जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र को सौने पर विवश किया और एक प्रयत्न सामूहिक रूप से करके समस्या का समाधान करने का प्रारम्भ किया।


मानव पर्यावरण पर आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन (International Conference on Human Environment)


संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा मानव पर्यावरण पर अन्तर्राष्ट्रीय कान्फ्रेंस का आयोजन स्टाक होम (स्वीडन) में 5 जून से 16 जून, 1972 को किया गया। इसमें लगभग 100 देशों से अधिक के प्रतिनिधिों ने भाग लिया। भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व० श्रीमति इन्दिरा गांधी ने इसमें भाग लिया। यहां 26 सूत्री मेग्नाकार्टा (महाधिकार पत्र) की घोषणा की गई। जो एक ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में स्वीकार किया गया। 


इस सम्मेलन की घोषणा की गई जो एक ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में स्वीकार किया गया। इस सम्मेलन की घोषणाओं में 26 सूत्रीय कार्यक्रमों का अनुमोदन किया गया। इन कार्यक्रमों पर्यावरणीय शिक्षा और पर्यावरणीय जागरूकता की आवश्यकता पर बल दिया गया और सम्भावित कार्यक्रमों की रूप रेखा तैयार की गई। 5 जून को सम्पूर्ण विश्व में 'विश्व पर्यावरण दिवस' के रूप में मनाये जाने की घोषणा की गई। 


इस कान्फ्रेंस ने जन साध् तारण के मन, मस्तिष्क ओर व्यवहार में परिवर्तन का दौर प्रारम्भ किया और प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से विश्व के सामने उपस्थिति समस्याओं में योगदान के लिए तत्पर हुए हैं। इसका प्रभाव प्रत्येक देश पर स्पष्ट परिलक्षित हुआ है। 


राष्ट्रीय शिक्षा नीति के अन्तर्गत पर्यावरण सुरक्षा को मूल आधार प्राप्त हुआ और इस बात पर बल दिया गया कि पर्यावरण चेतना प्रत्येक स्तर पर जाग्रत की जानी आवश्यक है। यही नहीं समाज के प्रत्येक वर्ग तथा प्रत्येक स्तर के लोगों में यह चेतना जाग्रत को जानी चाहिए यह प्रेरणा इस अन्तर्राष्ट्रीय कान्फ्रेंस के फलस्वरूप प्रारम्भ हुई। 


इसके साथ ही पर्यावरण शिक्षा को पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग बनाने पर बल दिया गया ताकि सम्पूर्ण शैक्षिक प्रक्रिय में समन्वय स्थापित यिका जा सके। इसके साथ ही कान्फ्रेंस के प्रभाव के कारण हो पर्यावरण के प्रति चेतना विकसित करने पर बल देने के साथ-साथ पर्यावरण के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण का विकास किया जाने लगा तथा पर्यावरण शिक्षा की शैक्षिक कार्यक्रम का महत्वपूर्ण अंग माना जाने लगा। अतः पर्यावरण शिक्षा के लिए विभिन्न क्रिया कलापों को बढ़ावा दिया जाने लगा और भारत में भी इस चेतना के प्रभाव पड़ा। भारत में शिक्षा के सभी क्षेत्रों में विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालयों में पर्यावरण के प्रति चेतना जागृत करने के लिए पाठ्यक्रम में पर्यावरण शिक्षा को सम्मिलित किया गया और प्रशासनिक स्तर पर भी अनेक कार्यक्रम कार्यान्वित किये गये ताकि पर्यावरण के प्रति जन जागृति को बढ़ावा मिले।


इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन ने राज्यों को अन्तर्राष्ट्रीय समदार्थों को, छोटे व बड़े देशों के पर्यावरण की सुरक्षा एवं सुधार के अन्तर्राष्ट्रीय तर के सभी प्रकरण समान रूप से सहयोग के आधार पर निपटायें जाएं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी को पर्यावरणीय संकटों के निदान, बचाव और नियन्त्रण तथा पर्यावरणीय समस्याओं को हल में तथा लोगों की भलाई में उपयोग लाया जाना चाहिए।


राज्यों को यह सुनिश्चितता दी गई कि वे पर्यावरण की सुरक्षा और सुधार के लिए एक समन्वित कुशल और गतिशील भूमिका का निर्वाह करें। सके साथ ही मानव तथा उके पर्यावरण को परमाणु हथियारों तथा जन-संहार के अन्य साधनों से बचाया जाना चाहिए। 


इस प्रकार इस मैग्नाकार्ता (महाधिकार-पत्र) की अभिशंसाओं के आधार पर यूनेस्कों के अन्तर्गत संयुक्त राष्ट्र (UNEP) कमेटी का निर्माण हुआ। जिसमें 50 सदस्य थे। इसी के आधार पर 1975 में अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरणीय शिक्षा कार्यक्रम (IEEP) के अन्तर्गत बेल्ग्रेड कान्फ्रेंस आयोजित की गई। इस कान्फ्रेंस के घोषणा पत्र में स्पष्ट किया गया कि विश्व के बिगड़ते पर्यावरण को रोकने और उसे सुधारने के लिए पर्यावरण शिक्षा का व्यापक कार्यक्रम प्रत्येक स्तर पर चलाया जाना चाहिए।


इस सम्मेलन के आधार पर ही प्रत्येक देश ने अपनी-अपनी पर्यावरण नीति बनाने का निर्णय लिया । और यह निर्णय भी लिया गया कि बिगड़ते पर्यावरण को रोकने और उसे सुधारने के लिए पर्यावरण शिक्षा का व्यापक कार्यक्रम प्रत्येक स्तर पर चलाया जाना चाहिए। इस सम्मेलन के आधार पर ही प्रत्येक देश ने अपनी-अपनी पर्यावरण नीति बनाने का निर्णय लिया। और यह निर्णय भी लिया गया कि बिगड़ते पर्यावरण को सुधारने के लिए प्रत्येक देश उपलब्ध भूमि भाग में 33% वन क्षेत्र अनिवार्य रूप से बनाये रखें।


अतः कान्फ्रेंस की घोषणाओं से आशा जाग्रत हुई और विभिन्न देशों ने इस आरे कदम बढ़ाने प्रारम्भ किये। इस प्रकार यह मानक कौ ऐसे पर्यावरण में, जिसमें वह सुखी और मार्यादपूर्ण जीवन जी सके तथा जहां स्वतन्त्रता, सचमानता, और रहन-सहन की पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध हों, जीने का मूलभूत अधिकार है और साथ ही उसका वर्तमान तथा भावी पीढ़ी के लिए सुरखित और सुधारे हुए पर्यावरण को उपलब्ध कराने का महत्वपूर्ण दायित्व प्रदान करता है। इस सन्दर्भ में रंग-भेद जातीय पृथक्करणीय भेद-भाव, उपनिवेशवादी अथवा अन्य प्रकार की प्रभुसत्ता के प्रकार के रंग-ढंग की किसी भी नीति की निन्दा करनी चाहिए और उसे दूर कर देना चाहिए।


मानव पर्यावरण पर नैरोबी (केन्या) सम्मेलन


मानव पर्यावरण कान्फ्रेंस की 10वीं वर्षगांठ पर 10 जून सचे 18 जून, 1982 को विश्व के लगभग 105 देशों के प्रतिनिधियों ने नैरोबी (केन्या) सम्मेलन में भाग लिया। यहां एक विशेष चार्टर (Special Charter) को घोषणा की गई, जिसे नैरोबी घोषणा-पत्र कहा जाता है। इस घोषणा पत्र में स्पष्ट किया गया कि 1972 में स्टॉक होम (स्वीडन) में जारी घोषणा पत्र में जो स्थिति थी, वह आज भी है। अतः पूर्व की योजना के अनुसार कार्य किया जाए और पर्यावरण सुरक्षा और सुधार के कार्यक्रमों को और अधिक प्रभावी बनाया जाना चाहिए। इस प्रकार नैरोबी (केन्या) सम्मेलन में पूर्व योजना के आधार पर पर्यावरण सुधार कार्यक्रम प्रारम्भ हुए।


पर्यावरण एवं विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (U.N. Conference on Environement and Development) 


3 जून से 14 जून, 1992 को ब्राजील के रियोडी जैनीरो शहर में पर्यावरण एवं विकास सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसे रियो सम्मेलन के नाम से भी जाना जाता है। इसका आयोजन संयुक्त राष्ट्र द्वारा किया गया। इस सम्मेलन का महत्वपूर्ण स्थान है इसलिए इसे पृथ्वी सम्मेलन भी कहा जाता है।


यह एक ऐतिहासिक सम्मेलन था, इसमें विश्व के 170 शासनाध्यक्षों एवं राष्ट्राध्यक्षों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में परम्परागत समस्याओं के साथ-साथ जैव विविध उता, तथा स्वच्छ टेक्नालॉजी के हस्तान्तरण पर विशेष बल दिया गया। इयस सम्मेलन में कई समस्याओं पर चिन्ता व्यक्त की गई और इसे दूर करने के उपाय खोजे गये, यथा-वन क्षेत्रों में निरन्तर कमी होना, ग्रीन हाउस का प्रभाव तेजी से बढ़ना, ओजोन परत का निरन्तर क्षीण होना, बढ़ती जनसंख्या की समस्या, ईधन की समस्या, शीत उपकरणों में कालोरोफ्लोरोकार्बन्स के स्थान पर नवीन तकनीकी का प्रयोग करना, प्रदूषण की रोकथाम करना आदि पर चर्चा के साथ-साथ जैव-विविधता और स्वच्छ तकनीकी के हस्तान्तरण पर भी विशेष बल दिया गया।


यह एजेण्डा-21 जो 40 अध्यायों में और १०० पृष्ठों में एक प्रमुख दस्तावेज था, को 21वीं सदी की मुख्य कार्य योजना के रूप में स्वीकार किया गया। इसमें निर्णय लिया गया कि विकसित देश अपने देश की आय का 0.7% पर्यावरण कोश में जमा करायें। इसका उपयोग अन्य देश अपने देश को पर्यावरणीय विविध समस्याओं से बचा सकें और इसकी पूर्ति कोश से कर सकें।


इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय रूस्तर पर सम्मेलनों के द्वारा पर्यावरण के प्रति जागरूकता लाने में सफलता मिली, पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति अनेक देश अवगत हुए और साथ ही अपने देश में पर्यावरण नीति बनाकर इस और कदम बढ़ाने प्रारम्भ किये ताकि समस्या का समाधान समय रहते हुए ही किया जा सकता है।

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