व्यवहार प्रतिबंध सिद्धांत
प्रोशांस्की, इटेन्सन, रिबलिन, रेजिन, वाम तथा स्टोकोल्स आदि के अनुसार जब व्यक्ति में परिस्थितियों पर नियन्त्रण करने की क्षमता का अभाव (Less of Perceive Control) होने लगता है, तब वह स्थिति पर्यावरणीय मनोविज्ञान में व्यवहार प्रतिबन्ध सिद्धान्त (Behaviour Constrant Theory) का पहला चरण होता है।
व्यवहार प्रतिबन्ध सिद्धान्त (Behaviour Constraint theory) के अनुसार व्यक्ति के व्यवहार पर प्रतिबन्ध या तो पर्यावरण के द्वारा वास्तविक क्षति के रूप में होगा या सिर्फ यह मान लें कि पर्यावरण व्यक्ति के व्यवहार को प्रतिस्थापित करता है। इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि परिस्थिति की संज्ञानात्मक, व्याख्या इस प्रकार करे कि उस परिस्थिति पर उसका (व्यक्ति) किसी भी प्रकार का नियन्त्रण न रहे।
जब व्यक्ति का परिस्थिति पर नियन्त्रण कम होने लगता है अथवा यह महसूस होने लगता है कि उसके व्यवहार में पर्यावरणीय घटनाएं बाधक हो रही हैं, तब व्यक्ति असुविधा अथवा निषेधात्मक भाव का अनुभव करता है। इस स्थिति में व्यक्ति उस परिस्थिति पर नियन्त्रण करने के लिए प्रयास करने लगता है। इस प्रकार के गोचर को बेहन (1966), वैघ तथा ब्रहम (1981) ने मनोवैज्ञानिक प्रतिघात (Psychological Reactness) नाम दिया है।
जब भी व्यक्ति को यह आभास होने लगता है कि उसके कार्य करने की स्वतन्त्रता में बाधा पड़ रही है, तो उस स्थिति में मनोवैज्ञानिक प्रतिघात के फलस्वरूप व्यक्ति पुनः अपनी स्वतन्त्रता प्राप्त करने की कोशिश करता है। उदाहरणार्थ- यदि भीड़ के कारण व्यक्ति की स्वतन्त्रता बाधित होती है, तो उस समय व्यक्ति भौतिक या सामाजिक अवरोध के द्वारा अपने को भीड़ से अलग रखने का प्रयत्न करता है।