संकेत संज्ञापन सिद्धांत - Signal Cognition Theory
इस सिद्धान्त के प्रवर्तक और प्रतिपादक डी.ए. ग्रीन तथा जे.ए. स्वेटस हैं। स्वेट अनुसार प्राचीन मनोभौतिकीय विधियों में भी प्रयोज्य केवल उद्दीपक की प्रस्तुति अनुसार प्रणा से ही अपनी अनुक्रिया करना प्रारम्भ नहीं करता वरन् प्रयोज्य अनुक्रियाय का प्रत्यक्षीकर अपना अलग एक मानदण्ड भी निर्मित करता है। अर्थात् प्रयोज्य की अनुकि उहीपक के साथ-साथ प्रयोज्य द्वारा निर्मित इस मानदण्ड से भी निर्मित होती है।
एक के समापन की प्रथम और सर्वोपरि मान्यता यह है कि उद्दीपक देहली के मनोभौतिकी समस्या संकेत संज्ञापन की ही समस्या है। उद्दीपक देहली निर्धारण की स्थिति के मनोध्य उद्दीपक के प्रस्तुत किए जाने की प्रतीक्षा करता रहता है। इस अवधि के दौरान न के प्रयोज्य पूर्णतः उस वातावरण से अलग होता है और न ही उसका केन्द्रीय स्नायुमण्डन निष्क्रिय होता है।
प्रयोज्य पूरी तरह प्रयोगशाला के वातावरण में विद्यमान रहता है और उसका स्नायुमण्डल कार्यरत भी रहता है। पृष्ठभूमि में विद्यमान अन्य उद्दीपक प्रयोज्य की एकाग्रता खण्डित करते हैं। संकेत संज्ञापन की भाषा में कहें तो यह होगा कि प्रयोज्य की आन्तरिक स्नायुविक क्रियाएँ और परिवेशीय या पृष्ठभूमिगत उद्दीपक कोलाहल या शोर की उत्पत्ति करले है। प्रयोज्य इसी कोलाहलपूर्ण स्थिति में उद्दीपक को ग्रहण करता है।
यद्यपि प्रयोग परिस्थिति में कोलाहल और संकेत प्रत्यक्ष रूप से स्थिर होते हैं फिर भी संवेदना की दृष्टि से उनका प्रभाव प्रत्येक प्रयास पर परिवर्तनशील होता है। यह परिवर्तनशीलता सामान्य वितरण वक्र के अनुरूप होती है। अब प्रश्न उठता है कि यदि कोलाहल और संवेदनशीलता एक ही मानसिक और स्थायविक स्तर पर घटित होते है तो संकेत को ग्रहणशीलता कैसे निर्धारित की जा सकती है। संकेत संज्ञापन सिद्धान्त के अनुसार कोलाहल और कोलाहल तथा संकेत के प्रभाव वितरण में प्राप्त अन्तर ही संज्ञापनशीलता है।