प्रात्यक्षिक भ्रम - Apparent Illusion
प्रायः यह माना जाता है कि प्रत्यक्षीकरण और भौतिक उद्दीपक के बीच पर्याप्त समानता है। कभी-कभी इनमें असमानता पाई जाती है। उस असमानता का प्रमाण 'भ्रम के गोचर से मिलता है। भ्रम में उद्दीपक का प्रत्यक्षित रूप त्रुटिपूर्ण होता है। आइजनेक और उनके साथियों के अनुसार विषयगत प्रत्यक्षीकरण में वास्तविकता से अन्तर ही भ्रम है अथवा किसी वस्तु का गलत प्रत्यक्षीकरण ही भ्रम है।
भ्रम और विभ्रम में अन्तर होता है। विभ्रम में उद्दीपक न होते हुए भी उद्दीपक का प्रत्यक्षीकरण होता है। यदि हम रस्सी को साँप समझ लें तो यह भ्रम है परन्तु बिना रस्सी अथवा अन्य किसी उद्दीपक के बिना यदि हम साँप का प्रत्यक्षीकरण करें तो यह विभ्रम होगा।
सिनेमा में भी एक प्रकार का भ्रम होता है क्योंकि सिनेमा के चलते-फिरते चित्र वास्तव में द्वि-आयाम वाले होते हैं परन्तु देखने में ऐसा प्रतीत होता है मानों यह चित्र तीन आयाम वाले होते हैं। अतः द्वि-आयाम वाले चित्रों का तीन आयाम वाले चित्रों के रूप में प्रताक्षीकरण भ्रम ही है।
भ्रम मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं-
(1) वैयक्तिक भ्रम
(2) सार्वभौम ब्रह्माण्ड
जब भ्रम किसी व्यक्ति विशेष तक ही सीमित होते हैं तब भ्रम वैयक्तिक होते हैं। इसी प्रकार से जब भ्रम का सम्बन्ध अधिकांश व्यक्तियों से होता है तब भ्रम सार्वभौमिक कहलाता है। मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न प्रकार के ज्यामितिक भ्रमों का उल्लेख किया है।
भ्रम के सिद्धान्त ( Theories of Illusion )
इसके निम्नलिखित सिद्धान्त होते हैं-
(1) नेत्रगति सिद्धान्त
इस सिद्धान्त के अनुसार जब किसी उद्दीपक को देखते हैं तो उद्दीपक के प्रत्यक्षीकरण में हमें अपने नेत्रों को धुनाना पड़ता है। जब नेत्र आसानी से घूम जाते हैं तो वस्तु बड़ी होते हुए भी छोटी प्रतीत होती है परन्तु जब नेत्रों में गति नहीं हो पाती है या आसानी से नहीं घूम पाते हैं तब उद्दीपक चाहे छोटा क्यों न हो बड़ा दिखाई देता है।
(2) नेत्र परिप्रेक्ष्य सिद्धान्त-
इस सिद्धान्त के अनुसार रेखाओं का प्रत्यक्षीकरण नेत्रों की दृष्टि काल पर निर्भर करता है। यह सिद्धान्त साधारण और दोषपूर्ण है। इस सिद्धान्त के द्वारा भ्रम के कई प्रकारों को समझाया नहीं जा सकता है।
(3) भावात्मक सिद्धान्त-
इस सिद्धान्त का प्रतिपादन लिप्स ने किया। लिप्स के अनुसार किसी चित्र या रेखाचित्र को देखते ही व्यक्ति में कुछ संवेगों और भावनाओं की उत्पत्ति हो जाती है और इनसे व्यक्ति का प्रत्यक्षीकरण प्रभावित होता है। लम्बवत् और क्षैतिज भ्रम को समझाते हुए लिप्य ने कहा है कि क्षैतिज रेखा आकर्षण उत्पन्न करती है और लम्बवत् रेखा के खनन व्यक्ति का अधिक प्रयाग करना पड़ता है, यही कारण है कि क्षैतिज रेखा छोटी रगती है और लम्बवत् रेखा बड़ी लगती है।
(4) संभ्रमण सिद्धान्त-
इस सिद्धान्त के अनुसार भ्रम का कारण आकृति प्रत्यक्षीकरण के अंगो का विश्लेषण न कर पाना है।
(5) सारगर्भित तथा पूर्णावृत्ति सिद्धान्त-
यह गेस्टाल्टवादी सिद्धान्त है। इग सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति प्रत्यक्षीकरण उद्दीपक को अंशों के रूप में न देखकर पूर्ण के रूप में देखता है। पूर्ण के रूप में देखने से व्यक्ति को कुछ गुण ऐसे भी दिखाई पड़ते हैं जो उस प्रत्यक्षीकरण उद्दीपक में नहीं होते हैं, इग्गी कारण उसे भ्रम हो जाता है।