अराजकतावाद क्या है? अर्थ, परिभाषा, सिद्धांत एवं विशेषताएं

अराजकतावाद क्या है?

अराजकतावाद क्या है? यह एक ऐसा राजनीतिक और सामाजिक दर्शन है जो किसी प्रकार की शक्ति का विरोधी है तथा राज्यविहीन समाज की परिकल्पना करता है । पारस्परिक समझौते के जरिये शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित करने में यह विश्वास करता है । 

अराजकतावाद का यह अभिप्राय नहीं है कि राज्यविहीन समाज में अव्यवस्था एवं अराजकता की स्थिति होगी । इसके अनुसार राज्य के अन्त के साथ ही विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक व्यावसायिक समुदायों का जन्म होगा । लोग पारस्परिक समझौते के आधार पर शान्ति एवं व्यवस्था की स्थापना करेंगे । राज्यविहीन समाज में किसी भी प्रकार की शक्ति और दबाव का प्रयोग नहीं होगा । लोग पारस्परिक समझौते के कारण स्वतः सामाजिक आचरण करेंगे । राज्यविहीन समाज के साथ - साथ यह वर्गविहीन समाज की भी परिकल्पना करता है । 
अराजकतावाद क्या है? अर्थ, परिभाषा, सिद्धांत एवं विशेषताएं
इस प्रकार यह साम्यवाद के निकट है परन्तु यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि अनेक दृष्टियों से दोनों में अन्तर है । लक्ष्य की दृष्टि से दोनों में समानता है अर्थात् दोनों ही राज्यविहीन और वर्गविहीन समाज की परिकल्पना करते हैं तथा उसकी प्राप्ति के क्रान्तिकारी साधन अपनाने में विश्वास करते हैं । दोनों में पहला अन्तर यह है कि साम्यवाद संक्रमण काल में राज्य का अस्तित्व स्वीकार करता है तथा वर्गविहीन समाज की स्थापना के लिए उस अवधि में उसका एक साधन के रूप में प्रयोग करता है । इसके विपरीत अराजकतावाद किसी भी स्थिति में राज्य का अस्तित्व नहीं स्वीकार करता है । वह उसे सदा के लिए समाप्त कर देना चाहता है ।

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अराजकतावादी किसी भी प्रकार की शक्ति अथवा दबाव में विश्वास नहीं करते हैं जबकि साम्यवाद का संक्रमणकालीन आधार शक्ति ही है । सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के नाम पर दल तथा अन्ततः एक व्यक्ति अथवा दल के कुछ वरिष्ठ नेताओं का अधिनायकत्व स्थापित हो जाता है । रूसो से लेकर सभी साम्यवाद की तरह कोई संक्रमणकाल नहीं मानते हैं । किसी भी स्थिति में राज्य और शक्ति का अस्तित्व स्वीकार न करना ही अराजकतावादी को साम्यवाद से अलग कर देता है । 

यह राज्य का विरोध इसलिए करता है कि वह शक्ति का प्रतीक है । शक्ति का प्रतीक होने के कारण वह मनुष्य के अधिकार और उसकी स्वतंत्रता का अपहरण करता है । अपने इस दुष्कृत्य के कारण वह दूषित और अनावश्यक संस्था है । अराजकतावादियों के अनुसार स्वतन्त्रता का अर्थ है नियन्त्रण का अभाव तथा राज्य शक्ति का प्रतीक होने के कारण मनुष्य की | स्वतंत्रता पर नियंत्रण लगाता है और उसका हनन करता है । राज्य केवल स्वतन्त्रता का हनन ही नहीं करता अपितु वह अन्याय और शोषण का साधन भी है । 

शक्ति : अर्थ, परिभाषा, प्रकार, रूप एवं प्रकृति ( Shakti: Arth, Paribhasha, Prakar )

मनुष्य स्वभाव से अच्छा प्राणी होता है परन्तु राज्य उसे विकृत करता है । कहने का तात्पर्य यह है कि इसके लिए सभी दृष्टियों से राज्य निरर्थक , अनावश्यक और दूषित है अतः उसका हमेशा के लिए अन्त होना चाहिए । राज्य के साथ - साथ यह उससे सम्बन्धित सभी संस्थाओं , निजी सम्पत्ति और धर्म का भी विरोधी है । 

राज्यविहीन और वर्गविहीन समाज की स्थापना के जरिये यह एक आदर्श सामाजिक व्यवस्था की परिकल्पना करता है । उस व्यवस्था में शक्ति और दबाव का कोई स्थान नहीं होगा । लोग स्वेच्छा से सभी कार्य करेंगे । उसमें राज्य के स्थान पर स्वतन्त्र समुदायों की एक संघीय व्यवस्था होगी । स्वतंत्रता , भ्रातृत्व और ज्याय उसके आधार होंगे । उसमें उत्पादक शक्तियों के सहकारी संघ होंगे । मनुष्य निर्मित समुदाय ही अपना - अपना उपयुक्त स्थान ग्रहण कर अतिरिक्त सुरक्षा तथा शानि एवं व्यवस्था का कार्य करेंगे । 

अराजकतावाद का अर्थ एवं परिभाषा ( Meaning and Definition of Anarchism ) 

अराजकतावाद का अर्थ अथवा उसकी परिभाषा स्पष्ट करने के लिए हम विद्वानों की परिभाषाओं और इसके आधारभूत सिद्धान्तों पर विचार करेंगे । 

क्रोपोटकिन ने इसकी परिभाषा करते हुए कहा है कि " अराजकतावाद जीवन एवं आचरण का वह सिद्धान्त है जो राज्यविहीन समाज की परिकल्पना करता है । ऐसे समाज में कानून के प्रति निष्ठा अथवा किसी सत्ता के आज्ञापालन से नहीं बल्कि ऐसे स्वतन्त्र समझौते से सद्भाव स्थापित होता है जो विभिन्न प्रादेशिक एवं उत्पादन । के लिए स्वतंत्र रूप से गठित समुदायों के बीच होते हैं । वे समुदाय सभ्य समाज व्यापक आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए गठित होते हैं ।

डिकिन्सन के अनुसार , ' अराजकता का अर्थ व्यवस्था का अभाव नहीं है । इसका अर्थ शक्ति का अभाव है । सरकार का अर्थ अनिवार्यता , विनाश और अलगाव , जबकि अराजकता का अर्थ है स्वतन्त्रता , एकता और प्रेम । 

अराजकतावाद का अर्थ स्पष्ट करने के लिए हमें विद्वानों की परिभाषा के साथ - साथ उसके आधारभूत सिद्धान्तों पर भी विचार करना चाहिए ।

अराजकतावाद के प्रमुख सिद्धांत क्या है? अथवा प्रमुख लक्षण

अराजकतावाद के निम्नलिखित आधारभूत सिद्धान्त अथवा लक्षण हैं-

राज्य निरर्थक , अनावश्यक और दूषित संस्था है — यह मनुष्यों को विकृत करता है , जबकि मूलतः वे स्वभाव से अच्छे प्राणी होते हैं । राज्य शक्ति , दमन और शोषण का प्रतीक है तथा वह मनुष्य के अधिकारों और उसकी स्वतन्त्रता का हनन करता है । आदर्श समाज व्यवस्था की स्थापना के लिए राज्य का सदैव के लिए अन्त होना चाहिए । 

स्वेच्छा ( Voluntary will ) न कि शक्ति समाज की आधारशिला होनी चाहिए - वर्तमान समाज व्यवस्था राज्य के कारण शक्ति , शोषण और दमन पर आधारित है । राज्यविहीन समाज में स्वतन्त्रता , समानता , भ्रातृत्व और न्याय उसके आधार होंगे । लोग पारस्परिक समझौते के जरिये आपसी सद्भाव एवं प्रेम से अपने कार्यों का सम्पादन करेंगे । उसमें शक्ति और दबाब का कोई स्थान नहीं होगा । 

निजी सम्पत्ति का अन्त कर वर्गविहीन समाज की स्थापना की जानी चाहिए । कहने का तात्पर्य यह है कि अराजकता ने जिस आदर्श समाज की परिकल्पना की है वह राज्यविहीन के साथ - साथ वर्गविहीन भी होगा । उसमें निजी सम्पत्ति का अन्त हो जायेगा ।
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मनुष्यों द्वारा निर्मित स्वतन्त्र समुदाय राज्य का स्थान ग्रहण करेंगे कहने का तात्पर्य यह है कि उस आदर्श समाज व्यवस्था में आन्तरिक सुरक्षा , शान्ति एवं व्यवस्था तथा बाह्य सुरक्षा का अर्थ उक्त स्वतन्त्र समुदाय करेंगे । वे पारस्परिक समझौते और सद्भाव के जरिये अपना कार्य करेंगे । उनके बीच समझौते और सद्भाव से शान्ति एवं व्यवस्था की स्थापना होगी । 

विद्वानों की परिभाषाओं तथा आधारभूत सिद्धान्तों के आधार पर हम इस | निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि " अराजकतावाद वह सामाजिक और राजनीतिक दर्शन है जो राज्यविहीन एवं वर्गविहीन समाज की परिकल्पना करता है । वह एक ऐसे आदर्श है समाज की व्यवस्था की परिकल्पना करता है जिसमें राज्य का हमेशा के लिए अन्त हो जायेगा तथा निजी सम्पत्ति एवं वर्ण व्यवस्था समाप्त हो जायेगी । उसमें किसी प्रकार की शक्ति का कोई स्थान नहीं होगा तथा स्वतंत्रता , समानता , भ्रातृत्व और न्याय उसके आधार होंगे । कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि यह एक ऐसा राजनीतिक दर्शन है जो एक आदर्श और मानवतावादी समाज की परिकल्पना करता है । "

अराजकतावाद की विशेषताएं

विद्वानों की परिभाषाओं तथा आधारभूत सिद्धान्तों के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि अराजकतावाद एक ऐसा राजनीतिक और सामाजिक दर्शन है जो एक आदर्श एवं मानवतावादी समाज व्यवस्था की परिकल्पना करता है तथा जिस सामाजिक व्यवस्था अथवा संघटन की परिकल्पना करता है, उसका स्वरूप अथवा उसकी विशेषताएँ निम्नलिखित है 

  1. समाज राज्यविहीन एवं वर्गविहीन होगा उसमें निजी सम्पत्ति और धर्म का कोई स्थान नहीं होगा । राज्य निरर्थक , अनावश्यक एवं अनुपयोगी संस्था तथा दमन एवं शोषण का प्रतीक है । वह मनुष्य के अधिकारों और उसकी स्वतन्त्रता का हनन करता है । अतः उसका हमेशा के लिए अन्त कर दिया जायेगा । निजी सम्पत्ति की व्यवस्था और धर्म भी दमन एवं शोषण का प्रतीक है अतः इन दोनों का भी अन्त कर दिया जायेगा । 

  2. शक्ति का कोई स्थान नहीं उन राज्यविहीन एवं वर्गविहीन समाज में किसी भी प्रकार की शक्ति का कोई स्थान नहीं होगा ।

  3. स्वतन्त्रता , समानता , भ्रातृत्व , सहयोग , प्रेम और न्याय उसके आधार होंगे । लोग भय दबाव से नहीं बल्कि सहयोग की भावना एवं सद्भाव के कारण स्वेच्छा से कार्य करेंगे । 

  4. स्वतन्त्र एवं ऐच्छिक संघ - मनुष्य विभिन्न आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं की प्राप्ति के लिए राज्य के स्थान पर विभिन्न स्वतन्त्र एवं ऐच्छिक समुदाय अथवा संघ होंगे जो पारस्परिक समझौते और सद्भाव के जरिये कार्य करेंगे । ये समुदाय ही आन्तरिक सुरक्षा , शान्ति एवं व्यवस्था तथा बाह्य सुरक्षा का कार्य करेंगे । 

  5. समाज का क्षेत्रीय और व्यावसायिक आधार पर विकेन्द्रीकरण होगा समाज विभिन्न समुदायों की एक संघीय व्यवस्था होगी । प्रत्येक समुदाय स्वतंत्र एवं स्वायत्तशासी होगा परन्तु मनुष्य की आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए वे आपस में मिलकर सद्भावनापूर्वक कार्य करेंगे । वाकुनिन के क्षेत्रीय स्तर से लेकर विश्व स्तर तक के लिए स्वतंत्र संघों की परिकल्पना की है । प्रत्येक संघ स्वायत्तशासी होगा तथा स्वाभाविक सहयोग विश्व संघ का आधार होगा । क्रोपोटकिन ने भी वाकुनिन से मिलती - जुलती परिकल्पना की है । 

  6. साम्यवादी आर्थिक व्यवस्था उस समाज की आर्थिक व्यवस्था पूर्णतः साम्यवादी होगी अर्थात् निजी सम्पत्ति की व्यवस्था समाप्त हो जायेगी तथा उत्पादन और उपभोग की वस्तुओं में कोई अन्तर नहीं होगा । समाज में वस्तुओं का उत्पादन पर्याप्त और अपेक्षित मात्रा में होगा । 

  7. मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक स्वेच्छा से समझौता का पालन करते हुए अधिक से अधिक कार्य और श्रम करेंगे ।

  8. भूमि और उत्पादन के सभी साधनों का स्वामित्व समाज के हाथ में होगा । ऐच्छिक संघों अथवा समुदायों के माध्यम से उनका उपयोग किया जायेगा । 

  9. आवश्यकतानुसार वस्तुएँ उस समाज में प्रत्येक व्यक्ति को आवश्यकतानुसार उत्पादित वस्तुएँ प्राप्त होंगी । 

  10. धर्म का स्थान नहीं — उस समाज में धर्म का कोई स्थान नहीं होगा । उसमें सामाजिक नैतिकता को स्थान और महत्व प्राप्त होगा । उसमें धार्मिक संस्थाएँ तो नहीं परन्तु लोगों को धार्मिक विश्वास और पूजा - पाठ की स्वतंत्रता होगी । 
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