लोकतंत्र के गुण तथा दोष - loktantra ke gun dosh

लोकतंत्र के गुण तथा दोष ( loktantra ke gun dosh )

लोकतंत्र ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें निरंकुशता और स्वेच्छाचारिता का कोई स्थान नहीं है । वह जनता का , जनता के लिए और जनता द्वारा शासन है । यह सीमित शासन का प्रतीक है अर्थात् इसमें शासन के तीन अंगों की निरंकुशता और स्वेच्छाचारिता पर विभिन्न प्रतिबन्ध होते हैं ।

( 1 ) जनता का शासन –

लोकतंत्र का पहला और महत्वपूर्ण गुण यह है कि यह जनता का शासन है । राजतंत्र में वंशानुगत राजा , कुलीनतंत्र में कुछ व्यक्ति तथा अधिनायकतंत्र में अधिनायक शासन करता है । उन पर वैधानिक दृष्टि से कोई प्रतिबन्ध नहीं होता है । उनका शासन निरंकुश और स्वेच्छाचारी होता है ।
लोकतंत्र के गुण तथा दोष - loktantra ke gun dosh

उनके शासन में जनता का कोई हाथ और अधिकार नहीं होता है । इसके विपरीत लोकतंत्र जनता का शासन है । इस व्यवस्था में वही प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से शासन करती है । दोनों ही स्थिति में शासन पर उसी का नियन्त्रण होता है । उसे व्यापक अधिकार और शक्ति प्राप्त होती है । राज्य की सम्प्रभुता उसी में निहित होती है । 

( 2 )सीमित और संवैधानिक शासन-

जनता का शासन होने के कारण लोकतंत्र सीमित और संवैधानिक शासन व्यवस्था है । यह संविधान के प्रावधानों के अनुसार संचालित होता है । शासन के किसी भी अंग को इसमें असीमित और अप्रतिबन्धित अधिकार नहीं प्राप्त होते हैं । इसमें सार्वजनिक नियन्त्रण और उत्तरदायित्व की व्यवस्था होती है । 

( 3 ) स्वतंत्रता समानता तथा मौलिक अधिकारों का पोषण - 

लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था , स्वतंत्रता , समानता तथा जनता के मौलिक अधिकारों पर आधारित होती है । वह इनकी रक्षा और इनका पोषण करती है । इनके अभाव में इसका सफल होना किसी भी प्रकार सम्भव नहीं है । जनता के शासन की तभी स्थापना हो सकती । है जब उसे स्वतंत्रता तथा अन्य मौलिक अधिकार प्राप्त हों और समाज समानता पर आधारित होता है । 

( 4 ) मानवीय गुणों का विकास - 

स्वतंत्रता , समानता तथा अन्य मौलिक अधिकारों का रक्षण और पोषण कर यह व्यवस्था व्यक्तियों में मानवीय गुणों के विकास की परिस्थिति का निर्माण करती है । जिस समाज में स्वतंत्रता समानता और मौलिक अधिकारों का अभाव होता है , उसमें मानवीय गुणों का पूर्णरूपेण विकास नहीं हो सकता है ।

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( 5 ) व्यक्ति तथा शासन के अधिकारों के बीच समन्वय-

लोकतांत्रिक व्यवस्था जनता को व्यापक अधिकार प्रदान करती है परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है , कि वह व्यवस्था की उपेक्षा करती है । उसमें जनता तथा शासन के अधिकारों के बीच समन्वय रहता है । न तो शासन और न ही जनता अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर सकती है । 

( 6 ) हिंसा का अभाव तथा शान्तिपूर्ण ढंग से विकास -

लोकतंत्र और हिंसा के बीच कोई सम्बन्ध नहीं होता है । यह एक संवैधानिक व्यवस्था है । इसमें सभी के अधिकार क्षेत्र संवैधानिक दृष्टि से निर्धारित होते हैं । किसी को भी अपने अधिकार क्षेत्र के उल्लंघन का अधिकार नहीं होता है । हिंसा का मार्ग अपनाने से अराजकता और अव्यवस्था फैलने का भय रहता । 

अराजकता और व्यवस्था की स्थिति लोकतंत्र को विफल बना देती है । यह व्यवस्था संवैधानिक और शान्तिपूर्ण ढंग से विकास का मार्ग प्रशस्त करती है । सार्वजनिक निर्वाचन , सार्वजनिक नियन्त्रण , सार्वजनिक उत्तरदायित्व तथा शान्तिपूर्ण ढंग से विकास की व्यवस्था होने के कारण लोकतंत्र में हिंसात्मक क्रान्ति की सम्भावना कम होती है ।
( 7 ) लोककल्याणकारी शासन - 
लोकतांत्रिक व्यवस्था लोककल्याणकारी होती है । लोकतन्त्र जनता का , जनता के लिए , जनता द्वारा शासन है । अतः इसमें समाज के सभी वर्गों के हितों की रक्षा की जाती है । अतः शासन व्यवस्था सभी वर्गों के विकास की परिस्थितियों का निर्माण करती है । 

यह शासन बच्चे , बूढ़े , अपाहिज तथा • विकसित लोगों की भलाई और उनके विकास के लिए अनेक लोककल्याणकारी कार्य करता है । कुल मिलाकर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि लोकतंत्र ही एक ऐसा शासन है जिसे मानवीय कहा जा सकता है । इसमें मानवीय शासन व्यवस्था के अनेक गुण विद्यमान होते हैं । 

लोकतंत्र के दोष ( loktantra ke dosh ):-

सैद्धान्तिक दृष्टि से लोकतंत्र ही एक ऐसा शासन है जिसे मानवीय कहा जा सकता है । इसमें निरंकुशता और स्वेच्छाचारिता का अभाव होता है । परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से इसके अनेक दोष अथवा इससे अनेक हानियाँ हैं । 

जनता के शासन के नाम पर व्यावहारिक दृष्टि से यह एक भीड़ तंत्र है । बहुमत के नाम पर इसमें ऐसे व्यक्ति शासक होते हैं जो विशेषज्ञ नहीं होते हैं । इसमें भ्रष्टाचार तथा दलबन्दी एवं गुटबंदी का बोलबाला होता है । यही नहीं , यह एक अपराधी तथा वास्तविक रूप में समाज के सम्पन्न और विशेषाधिकार प्राप्त लोगों का शासन है । 

इसके दोष अथवा इससे हानियाँ निम्नलिखित हैं-

Loktantra ke dosh

  1. अकुशल व्यक्तियों का शासन -
सैद्धान्तिक दृष्टि से लोकतंत्र जनता का शासन है जिसे वह अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से संचालित करती है । उसके द्वारा निर्वाचित व्यक्ति शासन का कार्य करते हैं । निर्वाचन के लिए कुशलता , निपुणता और विशेषज्ञता का कोई मापदण्ड नहीं होता है । चुनाव में सैद्धान्तिक दृष्टि से लोग पार्टी की नीतियों एवं सिद्धान्तों तथा व्यावहारिक दृष्टि से जाति , क्षेत्र , सम्प्रदाय और अन्य बातों के आधार पर अपने प्रतिनिधियों का निर्वाचन करते हैं ।

प्रायः देखा जाता है कि अयोग्य , अकुशल और अविशेषज्ञ लोग विजयी तथा कुशल , विशेषज्ञ , निपुण और चरित्रवान लोग चुनाव में पराजित हो जाते हैं । चुनाव एक कला है जो पार्टी और जो व्यक्ति इसमें दक्ष होता है , वह चुनाव में विजयी होता है । विजयी होने के बाद ही शासन का संचालन करते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि जनता के नाम पर लोकतंत्र भीड़तंत्र का रूप ग्रहण कर लेता है । येन केन प्रकारेण चुनाव जीतने की कला में दक्ष व्यक्ति ही विजयी होते हैं तथा शासन का संचालन करते हैं । 
  1. नौकरशाही हावी -
कुशलता , निपुणता और विशेषज्ञता के अभाव में इस व्यवस्था में नौकरशाही शासन पर हावी होती है । मंत्रिगण अपने सचिवों तथा अपने अधीनस्थ अधिकारियों के हाथों की कठपुतली होते हैं । यहाँ यह बात उल्लेखनीय है । कि जो मंत्री कुशल , दक्ष तथा तीक्ष्ण बुद्धि वाले होते हैं , उन पर यह बात नहीं लागू होती है । परन्तु सामान्यतः यह देखा जाता है कि अधिकतर मंत्री अकुशल अथवा सामान्य कुशलता वाले होते हैं । 
  1. दलबन्दी और गुटबन्दी लोकतांत्रिक व्यवस्था में पार्टियों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है-
इन्हीं के उम्मीदवार के रूप में लोग चुनाव लड़ते हैं तथा विजयो होने के बाद अपनी पार्टी के नाम पर सरकार बनाते हैं । सैद्धान्तिक दृष्टि से लोकतंत्र जनता का शासन है परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से यह दल विशेष का शासन है । इस प्रकार इसमें दलबन्दी तथा दलीय हित प्रमुख होती है । 

दलबन्दी के साथ - साथ इसमें गुटबन्दी भी चलती है । एक ही दल में अनेक गुट होते हैं तथा प्रत्येक गुट पार्टी और शासन पर हाबी होना चाहता है । इसके परिणामस्वरूप पार्टी में ही आन्तरिक संघर्ष चलता रहता है जिसका शासन और प्रशासन पर बुरा असर पड़ता है । लोग राष्ट्रीय हित की उपेक्षा कर अपने गुट के हितों की रक्षा करते हैं । 
  1. बहुमत के नाम पर अल्पमत की उपेक्षा -
लोकतांत्रिक व्यवस्था बहुमत के नाम पर चलती है । गलत एवं अहितकारी होने के बावजूद बहुमत ही मान्य होता है । इसका यह अर्थ नहीं है कि वह सदैव गलत और अहितकारी ही होता है । कभी - कभी अल्पमत सही तथा बहुमत गलत होता है । परन्तु इस स्थिति में भी बहुमत ही मान्य होता है ।

  1. निर्णय में शीघ्रता नहीं -
राजतंत्र और अधिनायकतन्त्र की तरह इसमें एक व्यक्ति को निर्णय का अधिकार नहीं होता है । इसमें काफी विचार - विमर्श के पश्चात् बहुमत से निर्णय किया जाता है । विधायिका में लम्बी बहस के बाद किसी विषय पर विधि निर्माण हो पाता है । कार्यपालिका का निर्णय भी किसी एक व्यक्ति का न होकर अनेक लोगों का होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि इस व्यवस्था में निर्णय करने में देर होती है । 
  1. भ्रष्टाचार का बोलबाला -

आर्थिक स्वतंत्रता एवं अधिकार के नाम पर यह व्यवस्था पूँजीवाद अथवा अर्द्धपूँजीवाद का समर्थन करती है । निजी सम्पत्ति की अर्थव्यवस्था तथा अल्प कार्यकाल होने के कारण उसमें शासक भ्रष्ट हो जाते हैं । 

  1. राष्ट्रीय एवं सार्वजनिक हितों की उपेक्षा -
दलीय हित एवं अपने स्वार्थों पर ध्यान देने तथा भ्रष्टाचार के कारण शासक राष्ट्रीय एवं सार्वजनिक हितों की उपेक्षा करते हैं । वे जो भी कार्य हैं उसके पीछे समाज के प्रभावशाली व्यक्तियों अथवा वर्गों के की रक्षा की मंशा होती है । शासक अपने निजी स्वार्थों तथा भ्रष्टाचार के कारण भी राष्ट्रीय एवं सार्वजनिक हितों की उपेक्षा करते हैं ।
  1. अस्थायी शासन –
शासन का विकेन्द्रीकरण लोकतंत्र का आधार होता है । विकेन्द्रीकरण के कारण शासनिक और प्रशासनिक कार्यों पर व्यय में वृद्धि हो जाती है । यह एक खर्चीली शासनिक व्यवस्था है । विधायिका और कार्यपालिका के सदस्यों के वेतन - भत्ते के कारण भी यह एक खर्चीली व्यवस्था है । एक निर्धारित अवधि के बार - बार होने वाले चुनावों के कारण भी यह अपव्ययी व्यवस्था है । 

  1. शासन पर सम्पन्न तथा विशेषाधिकार प्राप्त लोगों का प्रभाव -

सिद्धान्ततः लोकतंत्र जनता का शासन है परन्तु चुनाव में वही पार्टी तथा वही व्यक्ति निर्वाचित होता है जिसे समाज के सम्पन्न तथा विशेषाधिकार प्राप्त व्यक्तियों का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष समर्थन प्राप्त होता है । शासक वर्ग उनके प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष निर्देशन और नियन्त्रण में कार्य करते हैं । उनकी अथवा उनके हितों की उपेक्षा करने का वे साहस नहीं कर सकते हैं । ऐसा करने पर चुनाव के पराजय का दुष्परिणाम भोगना पड़ता है । 
  1. अधिकारों का दुष्परिणाम -
इस व्यवस्था में शासक और जनता , दोनों ही अवसर मिलने पर अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हैं । स्वतंत्रता और समानता का तो इतना गलत अर्थ लगाया जाता है कि पूरी की पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था अराजकता और अव्यवस्था में बदल जाती है । अविकसित लोकतांत्रिक देशों में तो इनका खुलकर गलत अर्थ तथा दुरुपयोग किया जा रहा है । 
  1. भावुकता का बोलबाला -
इस व्यवस्था में यह बात देखने को मिलती है कि लोग विवेक के बजाय भावुकता के आधार पर कार्य करते हैं । भावुकता के कारण लोग राष्ट्रीय हितों की उपेक्षा पर छोटी - छोटी बातों अथवा स्थानीय हितों को महत्व प्रदान करते हैं । भाषण की कला में निपुण व्यक्ति इस व्यवस्था में अधिक सफल होता है । 

अपनी इस निपुणता के कारण वह लोगों की भावुकता उभाड़ता है तथा सफलता प्राप्त करता है । इस दोषों के कारण ही प्राचीनकाल से लोकतंत्र का विरोध चला आ रहा है । इसके दोषों के कारण ही प्लेटो इसका कटु आलोचक था । ब्राइस और बार्कर आदि ने भी इसके दोषों की निन्दा तथा आलोचना की है ।

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