विद्यालयी पाठ्यक्रम में सामाजिक विज्ञान का स्थान - Place of Social Sciences in School Curriculum
यह विषय मूलतः बीसवीं शताब्दी की देन है। भारत में इस विषय के महत्त्व की और माध्यमिक शिक्षा आयोग तथा अन्तर्राष्ट्रीय टीम ने ध्यान आकर्षित किया था। उनका मत था कि इस विषय द्वारा बालकों को मानवीय सम्बन्धों का सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दोनों रूपों में ज्ञान प्रदान किया जा सकता है।
इन सम्बन्धों के ज्ञान के अभाव में छात्रों में सामाजिक आदतों एवं गुणों का विकास कठिन है। शैक्षिक कार्यक्रम में सामाजिक अध्ययन को स्थान प्रदान करने के पक्ष में अग्रांकित बातें प्रस्तुत की जा सकती हैं-
(1) सामाजिक शिक्षा के लिए विश्व की एक प्रबल माँग है। शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि इसके - द्वारा विश्व को विनाश की ओर अग्रसर होने से बचाया जा सकता है। इसके ज्ञान से बालकों को उत्तम मानवीय सम्बन्धों को बनाने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। वे अच्छे सम्बन्ध मानव जाति को कलह, द्वेष तथा संघर्ष से दूर करने में सहायक होंगे।
(2) सामाजिक विज्ञान को पाठ्यक्रम में सामाजिकता की भावना के विकास के कारण स्थान दिया गया है। जॉन डीवी का मत है कि समस्त शिक्षा नीति सामाजिक चेतना के विकास द्वारा ही स्फुटित होती है। आने वाली पीढ़ी को इस सामाजिक चेतना तथा सामाजिक वातावरण का ज्ञान देने के लिए इस विषय को पाठ्यक्रम में स्थान देना अवश्यक है।
(3) छात्रों के सामाजिक चरित्र निर्माण हेतु इसको पाठ्यक्रम में रखना आवश्यक है।
(4) सामाजिक अध्ययन के द्वारा बालकों को प्रजातन्त्र के विषय में शुद्ध जानकारी प्रदान की जाती है। आज के प्रजातन्त्रात्मक समाज को सफलतापूर्वक चलाने के हेतु प्रजातन्त्र के आदर्शों तथा मूल्यों का ज्ञान होना आवश्यक है। सामाजिक अध्ययन प्रजातन्त्र के आदर्शों तथा मूल्यों की प्राप्ति में बहुत सहायक है।
(5) सामाजिक अध्ययन के द्वारा बालकों में नैतिक तथा बौद्धिक मूल्यों को विकसित किया जाता है, उदाहरणार्थ- स्वाध्याय की आदत का निर्माण, जो कि बालकों में बौद्धिक साहस उत्पन्न करती है। आत्मनिर्भरता तथा वैयक्तिक उत्तरदायित्व का भाव, सत्य तथा असत्य में भेद करना आदि।