राजनीतिक विकास का अर्थ, परिभाषा एवं विशेषताएं
'राजनीतिक विकास ' राजनीतिक परिवर्तन का रूप है । इसके शब्दार्थों तथा व्याख्या पर विद्वानों में मतभेद है ।( 1 ) रूपर्ट एमर्सन जैसे विचारक राजनीतिक विकास को ' आर्थिक विकास की राजनीतिक पूर्वापेक्षा ' के रूप में करते हैं । किन्तु यह दृष्टिकोण तथ्य - सम्मत नहीं क्योंकि एशिया और अफ्रीका के अनेक देशों में राजनीतिक विकास ने आर्थिक विकास को अवरुद्ध किया है । उन्हें प्रजातन्त्रात्मक व्यवस्थाएँ बड़ी व्यय साध्य लगती हैं ।
( 2 ) कपितय विचारक उसे ' औद्योगिक समाजों की राजनीति के समरूप मानते हैं । उसके अनुसार , उसका राजव्यवस्था के व्यवहार में कुछ विशेषताएँ होनी चाहिए , जैसे स्वतन्त्रता , सुव्यवस्थित कानूनी प्रक्रियाएँ , राजनीति एक लोककल्याण के साधन के रूप में , आदि ।
( 3 ) अधिकांश समाजशास्त्री राजनीतिक विकास का अर्थ ' आधुनिकीकरण ' से लेते हैं । जिसके अनुसार वह संयुक्त राज्य अमरीका , ब्रिटेन आदि विकसित देशों को आदर्श मानकर अनुगमन करने की प्रक्रिया है । इन आदर्शों में से कतिपय जन सहभाग , कानून का शासन - गुण - प्रधानता , नागरिकता आदि हैं । किन्तु इस दृष्टि द्वारा क्षमता और राष्ट्रवाद जैसे तत्वों की अवहेलना की गयी है । साथ ही साथ पश्चिमी समाजों को आधुनिक नहीं माना जा सकता ।
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( 4 ) अन्य विद्वानों ने राजनीतिक विकास को ' राष्ट्र राज्य के रूप में देखा है । परन्तु अनेक देश आकार प्रकार की दृष्टि से ही राष्ट्र राज्य माने जाते हैं - जैसे , भूटान अथवा 1971 के पूर्व समग्र पाकिस्तान ।( 5 ) राजनीतिक विकास को प्रशासनिक एवं कानूनी विकास ' के रूप में भी देखा जाता है । इसके लिए प्राय : औपनिवेशक काल के प्रशासनिक ढाँचे को और भी अधिक सुदृढ़ बनाने की अवधारणा निहित है । अनेक विकासशील देशों में नौकरशाही वर्ग का प्रभाव है , किन्तु उसे ही राजनीतिक विकास का परिचायक नहीं माना जा सकता। नौकरी राजनीतिक विकास का प्रतीक नहीं हो सकती ।
( 6 ) एक अवधारणा ' जन - संघटन तथा सहभाग ' से सम्बन्ध रखती है । इसमें विशाल जन - सभाओं एवं संघटनों में सामूहिक निष्ठा का प्रदर्शन किया जाता है । शासक - अभिजन प्रभाव और निर्णय प्रक्रिया का विवरण कर देते हैं । किन्तु जन - भावनाओं को उभारने के दुष्परिणाम भी होते हैं । जनता को उत्तेजित बनाये रखना विकास का परिचायक नहीं है । राष्ट्रपति सुकाणों के इण्डोनेशिया में किये प्रयासों को इस परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है ।
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( 7 ) प्रजातन्त्रवादी विचारक राजनीतिक विकास को ' प्रजातन्त्र ' का पर्याय मानते हैं , किन्तु अनेक देश में प्रजातन्त्र एक खर्चीली शान - शौकत का प्रतीक एवं भार - स्वरूप व्यवस्था है ।( 8 ) यथास्थितिवादी ' स्थायित्व तथा सुव्यवस्थित परिवर्तनों को राजनीतिक विकास का पर्याय मानते हैं । प्रायः तानाशाहों तथा एकतन्त्र शासकों द्वारा यही व्याख्या प्रस्तुत की जाती है । परन्तु स्थायित्व स्वयंसाध्य भी हो सकता है ।
( 9 ) राजनीतिक विकास का एक रूप शक्ति एवं संघटन का प्रदर्शन है । इसका मूल उद्देश्य एक व्यक्ति या गुट के हाथों में सम्पूर्ण शक्ति सौंप देना होता है । इसके लिए समस्त साधनों को शक्तिवर्द्धन में लगा दिया जाता है ।
( 10 ) उसकी आधुनिकीकरण से मिलती - जुलती व्याख्या सामाजिक परिवर्तन की बहुकारकीय प्रक्रिया के रूप में भी की जाती है । इसमें राजनीतिक विकास को * व्यापक सन्दर्भ में देखा जाता है और उसके साथ - साथ सामाजिक तथा आर्थिक विकास का भी अध्ययन किया जाता है । यह एक अतिव्यापी दृष्टिकोण है । कुछ लोग आत्म - सम्मान , संस्थाकरण , हृदय परिवर्तन तथा अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में राष्ट्रीय सम्मान के साथ उसका सम्बन्ध जोड़ते हैं । इस प्रकार ' राजनीतिक विकास ' के अर्थों में एक व्यापक भ्रम फैला हुआ है । पाई जिसमें इस धारणा की पहली बार व्यवस्थित व्याख्या की —
राजनीतिक विकास की विशेषता क्या है
इन विभिन्न दृष्टिकोणों के विश्लेषण तथा अपने स्वतन्त्र अध्ययन के द्वारा राजनीतिक विकास की तीन विशेषताओं पर पहुँचता है । उसके अनुसार राजनीतिक विकास में निम्न अवधारणाएँ शामिल हैं( 1 ) समानता ( Equality ) के प्रति सामान्य भावना यह सहभाग, सार्वकालिकता ( universalism ), अर्जन ( achievement ) आदि गुणों से सम्बन्धित हैं । उसके अनुसार, यह आधुनिकता एवं विकास का मूल भाग है । इनकी माँग निरन्तर बढ़ती जाती है । यह क्षमता ( Capacity ) सम्बन्धी है , जो राजव्यवस्था के निर्गतों - सरकार के कार्य - निष्पादन, प्रभावशीलता, कार्य क्षमता, प्रशासनिक बौद्धिकता, धर्मनिरपेक्षता आदि व्यवहार एवं नीतियों से सम्बद्ध है ।
विभिन्नीकरण ( Differentiation ) एवं विशेषीकरण ( specialization ) प्रक्रियाओं पर आधारित है । किन्तु इसके साथ ही एकीकरण ( Intergration ) का संयोग भी रहता है । इस प्रकार राजनीतिक विकास की प्रक्रिया के ये तीन आयाम बताये गये हैं । किन्तु प्राय : ये तीनों प्रकार एक - दूसरे के साथ सरलतापूर्वक समायोजित नहीं होते । इनमें गहरा तनाव भी सम्भव है ।
अधिक समानता की माँग व्यवस्था की क्षमता को चुनौती दे सकती है । विभिन्नीकरण , गुण एवं विशिष्ट ज्ञान के महत्व पर जोर देकर समानता को कम करने की माँग की जा सकती है । इस अवधारणा त्रय को पाई ' विकास की लक्षण समष्टि ' ( development syndrome ) कहता है ।
समानता का सम्बन्ध औचित्यपूर्ण तथा व्यवस्था के प्रति निष्ठा बढ़ाने वाली राजसंस्कृति तथा भावनाओं से है । क्षमता का सम्बन्ध शासन - संरचनाओं के आधिकारिक कार्य - निष्पादन से है । विभिन्नीकरण समस्त समाज एवं राज्यव्यवस्था में व्याप्त प्रक्रिया की विशिष्ट संरचनाओं के स्वरूप पर आधारित होता है ।
समानता का सम्बन्ध औचित्यपूर्ण तथा व्यवस्था के प्रति निष्ठा बढ़ाने वाली राजसंस्कृति तथा भावनाओं से है । क्षमता का सम्बन्ध शासन - संरचनाओं के आधिकारिक कार्य - निष्पादन से है । विभिन्नीकरण समस्त समाज एवं राज्यव्यवस्था में व्याप्त प्रक्रिया की विशिष्ट संरचनाओं के स्वरूप पर आधारित होता है ।
पाई के अनुसार राजनीतिक विकास अन्ततः राज संस्कृति , आधिकारिक संरचनाओं तथा सामान्य राजनीतिक प्रक्रियाओं के परस्पर सम्बन्धों के चारों ओर घूमता रहता है । सरल शब्दों में वह राजनीतिक संरचनाओं के अधिक विविध एवं क्षमतापूर्ण बनने की प्रक्रिया है । ताकि समाज का नवीन लक्ष्यों के अनुरूप रूपान्तरण किया जा सके ।
आल्फ्रेड डायमण्ड एक राज्यव्यवस्था को विकासशील मानता है , यदि उसमें नवीन सामाजिक लक्ष्यों के नये प्रकारों को पूरा करने , उन्हें सफलतापूर्वक क्रियान्वित करने तथा नये प्रकारों के संघटनों का निर्माण करने की क्षमता में वृद्धि हो । आइजनस्टैड उसे ' परिवर्तनों को लगातार आत्मसात करने की क्षमता को ' संस्थात्मक प्रबन्ध ' मानता है ।
' रिग्स ने उसे ' मूल्य चयनों पर आधारित संघटनात्मक निर्णय ले सकने की बढ़ी हुई योग्यता बताया है । उसके परिणामस्वरूप राज्यव्यवस्था में सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन का मार्ग , मात्रा और दर को निर्देशित करने की क्षमता आ जाती है । विकसित देशों की अपेक्षा विकासशील देशों में राज्यव्यवस्था की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण होती है । फिर भी ' विकास ' शब्द स्पष्ट नहीं है ।
'राजनीतिक विकास एक भ्रान्तिजनक शब्द है ' - मानवीय दृष्टि से भी तथा आनुभविक दृष्टि से भी मानवीय सिद्धान्त निर्माता का झुकाव ' अच्छी ' राजनीतिक सुव्यवस्था की ओर रहता है परन्तु पैकनहैम के मतानुसार , इनसे कुछ विचारक राजनीतिक विकास को आश्रित परिवर्त्य ( dependent variable ) अर्थात् अनेक कारकों एवं कारणों का परिणाम तथा कुछ स्वतन्त्र एवं मध्यवर्ती परिवर्त्य मानते हैं ।
राजनीतिक विकास को आश्रित चर मानने वाले उसे औद्योगीकरण, नगरीकरण, शिक्षा और साक्षरता लौकिक संस्कृति के प्रसार आदि का परिणाम मानते हैं । स्वतन्त्र एवं अन्तर्वर्ती चर मानने वाले विश्लेषक राजनीति से नौकरशाही के विकास , राष्ट्रवाद के उद्धव, राजनीतिक दलों के निर्माण, राजनैतिक सहभाग, संसाधनों से संघटन आदि को जोड़ते हैं ।
आमण्ड एवं पॉवेल के अनुसार-
राजनीतिक विकास ' राजनीतिक संरचनाओं में वर्धित विभिन्नीकरण तथा विशेषीकरण होने के साथ - साथ , राजनीतिक संस्कृति में बढ़ता हुआ लौकिकीकरण ( Secularization ) है । राजनीतिक विकास का उद्देश्य राजव्यवस्था की प्रभावशीलता , कार्यक्षमता तथा सामर्थ्य को बढ़ाना ताकि वह नवीन चुनौतियों का सामना कर सके हैं ।आल्फ्रेड डायमण्ड एक राज्यव्यवस्था को विकासशील मानता है , यदि उसमें नवीन सामाजिक लक्ष्यों के नये प्रकारों को पूरा करने , उन्हें सफलतापूर्वक क्रियान्वित करने तथा नये प्रकारों के संघटनों का निर्माण करने की क्षमता में वृद्धि हो । आइजनस्टैड उसे ' परिवर्तनों को लगातार आत्मसात करने की क्षमता को ' संस्थात्मक प्रबन्ध ' मानता है ।
हैगन के अनुसार-
वह नयी संरचनाओं एवं प्रतिमानों की ऐसी रचना है जो राज्यव्यवस्था को अपनी आधारभूत समस्याओं का सामना करने योग्य बनाती है प्रायः इन विचारकों में विकास - संकेतकों ( indicators ) पर मतैक्य नहीं है । वे स्वतन्त्र परिवयों तथा मध्यवर्ती परिवयों में भेद नहीं करते, अर्थात् एक साथ उसे विकास का कारण तथा परिणाम दोनों मान बैठते हैं । प्रायः उनकी परिभाषा एवं व्याख्या में अन्तर हो जाता है । मानकीय दृष्टिकोण अपेक्षाकृत स्पष्ट है , किन्तु मूल्यों के ' स्वरूप ' प्रभाव , मापन तथा उसके यथार्थ के सम्बन्धों को स्पष्ट करने में बड़ी कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं ।सी. एच. डॉक ने विकास के दो अर्थ बताये हैं—
( 1 ) केवल परिवर्तन के अर्थ में , ( 2 ) किसी निश्चित लक्ष्य की ओर चलने वाली प्रक्रिया के रूप में । मैकेंजी के अनुसार , राजनीतिक विकास , उच्चस्तरीय अनुकूलन को प्राप्त करने की क्षमता है ।' रिग्स ने उसे ' मूल्य चयनों पर आधारित संघटनात्मक निर्णय ले सकने की बढ़ी हुई योग्यता बताया है । उसके परिणामस्वरूप राज्यव्यवस्था में सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन का मार्ग , मात्रा और दर को निर्देशित करने की क्षमता आ जाती है । विकसित देशों की अपेक्षा विकासशील देशों में राज्यव्यवस्था की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण होती है । फिर भी ' विकास ' शब्द स्पष्ट नहीं है ।
'राजनीतिक विकास एक भ्रान्तिजनक शब्द है ' - मानवीय दृष्टि से भी तथा आनुभविक दृष्टि से भी मानवीय सिद्धान्त निर्माता का झुकाव ' अच्छी ' राजनीतिक सुव्यवस्था की ओर रहता है परन्तु पैकनहैम के मतानुसार , इनसे कुछ विचारक राजनीतिक विकास को आश्रित परिवर्त्य ( dependent variable ) अर्थात् अनेक कारकों एवं कारणों का परिणाम तथा कुछ स्वतन्त्र एवं मध्यवर्ती परिवर्त्य मानते हैं ।
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उसे आश्रित परिवर्त्य मानने वाले शोधकर्ताओं के अनुसार आधुनिकीकरण एवं ' राजनीतिक प्रजातन्त्र आदि के साथ राजनीतिक विकास स्वतः चला आता है । इस वर्ग में बगैस, एस. एम. लिपसेट रिगिन्स, कोलमैन, डॉयश, विलियम कार्नहॉसर, बीनार, आमण्ड वर्बा , पाई आदि आते हैं । दूसरे स्वतन्त्र एवं मध्यवर्ती परिवर्त्य मानने वाले वर्ग में , वह केवल मात्र परिणाम नहीं है , अपितु स्वयं अन्य परिवर्तनों का कारण ( cause ) भी है ।राजनीतिक विकास को आश्रित चर मानने वाले उसे औद्योगीकरण, नगरीकरण, शिक्षा और साक्षरता लौकिक संस्कृति के प्रसार आदि का परिणाम मानते हैं । स्वतन्त्र एवं अन्तर्वर्ती चर मानने वाले विश्लेषक राजनीति से नौकरशाही के विकास , राष्ट्रवाद के उद्धव, राजनीतिक दलों के निर्माण, राजनैतिक सहभाग, संसाधनों से संघटन आदि को जोड़ते हैं ।
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